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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे सामने है। दुःखके साथ कहना पड़ता है कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के प्रतिनिधिने इस प्रस्तावका जो मजमून मुझे दिखाया था, यह पाठ तो उससे बहुत अधिक बुरा है। (४ जुनके) 'फॉरवर्ड' में प्रस्ताव छपा है। वह इस प्रकार है:

यह सम्मेलन अहिंसाकी नीतिमें अपना दृढ़ विश्वास प्रकट करता है, किन्तु साथ ही गोपीनाथ साहाने श्री डेकी हत्याके सिलसिलेमें फांसीकी सजा पाकर जिस देशभक्तिका परिचय दिया है, उसके लिए उनके प्रति सादर श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

इस प्रस्तावको मैं अहिंसाके व्यंगके अलावा और कुछ नहीं मान सकता। अगर इसमें अहिंसा शब्दको न घसीटा गया होता तो प्रस्ताव कम अशोभन होता। अगर गोपीनाथ साहाके किसी कार्यको उनकी देशभक्तिका द्योतक माना जा सकता है तो वह उनका हत्या-कार्य ही है; न कि उसके परिणामस्वरूप मिलनेवाली फाँसीकी सजा। वे मरने का संकल्प करके नहीं, बल्कि जिस व्यक्तिको घृणित मानते थे, उसे मारने का संकल्प करके चले थे। वे जानते थे कि इसमें उनके फाँसीपर लटका दिये जाने का खतरा है। इससे उन्हें बहादुर तो माना जा सकता है; किन्तु लाजिमी तौरपर देशभक्त नहीं। कारण, हर हत्यारा जानता है कि वह जोखिमका काम कर रहा है और इसलिए उसे बहादुर कहा जा सकता है। इसलिए अगर उनके किसी कार्यमें देशभक्ति थी तो इतनी ही कि उन्होंने किसीके प्राण लिये। यदि हम अहिंसाको केवल व्यावहारिक नीति ही मानें, तो भी हत्याका उससे मेल नहीं बैठता। स्वयं अहिंसापर दृढ़ रहकर कष्ट झेलना और हिंसापूर्वक किसी दुसरेको चोट पहुँचाना, ये दोनों कार्य एक ही सांसमें देशभक्तिपूर्ण नहीं माने जा सकते। हर देशप्रेमीकी देशभक्तिका तकाजा है कि जबतक उसका देश अहिंसाकी नीतिपर चल रहा है, तबतक हत्या आदि कार्यों द्वारा वह उसमें व्यवधान न डाले और अगर कोई हत्या करता है तो अहिंसाकी नीतिपर चलनेके लिए प्रतिज्ञाबद्ध लोगोंके कर्त्तव्यकी इतिश्री इतनेसे ही नहीं हो जाती कि वे किसी भी तरह उस कार्यसे अपना नाम न जुड़ने दें; बल्कि उन्हें चाहिए कि वे उस कृत्यकी खूब डटकर भर्त्सना करें--- क्योंकि और कुछ नहीं तो उनका इतना कर्त्तव्य तो है ही कि जनमत तैयार करके वे ऐसे कृत्योंकी रोक-थाम करें। यदि हत्यारेका प्रेरक-भाव विमलतम हो तो भी उसकी इस प्रकार भर्त्सना करना आवश्यक है। व्यावहारिक राजनीतिमें महत्व सिर्फ कार्यका होता है; न कि कार्य और परिणामोंसे स्वतन्त्र किसी उद्देश्य या मनोवृत्तिका। यदि प्रस्तावमें अहिंसाकी नीतिमें फिरसे विश्वास व्यक्त न किया गया होता तो निःसन्देह मेरी इन दलीलोंमें कोई बल न रहता। लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि जिस घड़ीतक कांग्रेस उस सिद्धान्तको लेकर चलती रहेगी जिसको लेकर वह इस समय चल रही है, तबतक अपने सिद्धान्तके प्रति निष्ठा रखनेवाले हर कांग्रेसजनका यह परम कर्तव्य है कि वह मनसा, वाचा, कर्मणा राजनीतिक हिंसाके प्रत्येक कृत्यको धिक्कारे। इसलिए बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीसे मेरा नम्र निवेदन है कि वह या तो सम्मेलनके इस प्रस्तावसे अपनेको पूर्णरूपेण विच्छिन्न कर ले या अगर इस प्रस्तावका, जो बहुत बड़े मतसे पास हुआ प्रतीत होता है, कोई खुलासा उसके पास हो तो उसे जनताके सामने रखकर अपनी स्थिति स्पष्ट करे।