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टिप्पणियाँ

प्रस्ताव तैयार करती है, इसलिए वह व्यवहारतः विधायक समिति भी है। जबतक किसी कार्यकारिणी समितिके सदस्योंको यह मालूम नहीं हो कि उन्हें किन नियमोंका पालन करना है तबतक ऐसी कोई समिति कैसे चुनी जा सकती है। मेरी रायमें यह ऐतराज बिलकुल ठीक है। मगर यहाँ भी मेरी बात कटती नहीं है; क्योंकि मैंने तो सिर्फ इस बातपर अपनी राय ही दी है कि कांग्रेसके प्रस्तावोंपर अगले छः महीनोंमें किस तरह अमल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। कांग्रेसके कार्यमें किसी जाब्तेकी कठिनाईको आड़े नहीं आने देना चाहिए और अगर कांग्रेसकी कार्यकारिणी समितियोंके सम्बन्धमें मेरा विचार कांग्रेसजनोंको ठीक लगता हो तो इन मित्र महोदयने जो कठिनाई बताई है उसे अगले सालके लिए तो आसानीसे दूर किया जा सकता है--यह व्यवस्था करके कि कार्यकारिणी समितियोंका चुनाव कांग्रेस अधिवेशनके बाद दुबारा हो। मेरी रायको अगर वह कुछ महत्त्व रखती हो तो सदस्यों और मतदाताओंके लिए सिर्फ दिशादर्शनके रूपमें लेना चाहिए। मुझे यह राय इसलिए देनी पड़ी है कि उस कार्यक्रमको पूरा करनेकी जिम्मेदारी बहुत हदतक मुझपर ही है। इसलिए अपनी राय देते समय मैंने यह भी जतला दिया है कि कारगर ढंगसे मेरी सेवाका उपयोग किस तरह किया जा सकता है।

आगाखानी खोजे[१]

ऊपर जो-कुछ कहा है वह 'नवजीवन' के इसी अंकमें प्रकाशित दो अनुच्छेदोंका अविकल अनुवाद है। अब मैं पत्र-लेखकोंको आमन्त्रित करता हूँ कि वे अपने इस कथनके समर्थनमें अपनी दलीलें और तथ्य भी भेजें कि खोजा धर्मोपदेशकोंने लोगोंसे अपना धर्म स्वीकार करानेके लिए उन्हें सांसारिक सुख-सम्पदाका लोभ दिखाया है।

मुसलमानोंकी तरफदारी

अब फिर मुझपर मुसलमानोंकी तरफदारी करनेका आरोप पहलेसे दोगुने जोरके साथ लगाया जा रहा है। आलोचकोंकी बातोंका आशय यह है कि मैं हिन्दुओंके दोषोंको बहुत बढ़ाकर दिखाता हूँ और मुसलमानोंके दोषोंको घटाकर। एक तरहसे मैं इस आरोपको सहर्ष स्वीकार करता हूँ। यदि हम सही निर्णय देना चाहते हैं तो हमें इस सुन्दर सहज नियमके अनुसार चलना चाहिए कि चीजोंको उनके सही परिप्रेक्ष्यमें देखें। लेकिन हम तो उस नियमके खिलाफ चलनेके आदी हो गये हैं। हम अपने दोषोंको तो घटाकर आँकते हैं और अपने प्रतिपक्षके दोषोंको बहुत-चढ़ाकर। इससे असहिष्णुताकी भावना बढ़ती है। अगर हममें उदारता और सहिष्णुता हो तो हम अपने प्रतिपक्षियोंको भी उसी तरह देखनेका प्रयत्न करेंगे जिस तरह वे खुद अपनेको देखते हैं। इस कोशिश में हम पूरी तरह कामयाब तो नहीं होंगे, लेकिन उससे हमें सही परिप्रेक्ष्य प्राप्त हो जायेगा। इसलिए जिस चीजको हिन्दुओंके दोषोंका अतिरंजन समझा जा

 
  1. मूलमें इसके पहले गुजराती नवजीवनमें प्रकाशित एक टिप्पणीका अनुवाद दिया गया है देखिए "टिप्पणयाँ", ८-६-१९२४।