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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहा है वह ऊपरसे ही अतिरंजना लगती है, वास्तवमें बात वैसी है नहीं। एक आलोचकका कथन है: "लेकिन क्या आप यह चाहते हैं कि मौलाना अब्दुल बारीको आपकी तरह हम भी खुदाका भोला-भाला बन्दा मान लें। हम संयुक्त प्रान्तके लोग तो उन्हें घमण्डी, मिथ्याभाषी और अविश्वसनीय व्यक्तिके रूपमें जानते हैं।" मैं उन्हें यह यकीन दिलाना चाहता हूँ कि अगर मौलाना साहब, जैसे उन लोगोंको लगते हैं मुझे भी वैसे ही लगते तो मैं कहनेमें कोई संकोच न करता। उनके खिलाफ मैं जो अधिकसे-अधिक जानता हूँ सो मैंने ही कह दिया है; अर्थात् यह कि वे एक खतरनाक दोस्त हैं। मुझको वे झूठे तो कभी नहीं मालूम पड़े। कुछ आलोचक समझते हैं कि मैं मुसलमानोंसे राजनैतिक मतलब गाँठनेके लिए उनकी चापलूसी कर रहा हूँ। वे ऐसा हरगिज न मानें। मेरे लिए यह गैर-मुमकिन बात है; क्योंकि मैं जानता हूँ कि खुशामदसे एकता स्थापित नहीं हो सकती। हमें भूलसे भी शिष्टाचार और सौजन्यको चापलूसी और अशिष्टताको निर्भीकता नहीं मान बैठना चाहिए।

एक मुसलमानके दिलका गुबार

हिन्दू-मुस्लिम एकताको समस्यापर मेरे वक्तव्यके सम्बन्धमें एक मुसलमान भाईने पत्र लिखा है। उसके कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ। वे कहते हैं:

'मुझे ज्यादा शर्म तो हिन्दुओंकी बुजदिलोपर आती है। जो घर लूटे गये उनमें रहनेवाले लोग अपनी सम्पत्तिकी रक्षा करते-करते मर क्यों नहीं गये?' आपके इन वाक्योंसे हिन्दुओंमें उत्तेजना फैलनेकी आशंका है। मुझे दुःख है कि आपने ऐसी बातें लिखीं।...आपकी इन बातोंका नतीजा क्या हो सकता है, यह सोचते भी डर लगता है।

मुझे तो अपने इस कथनमें कोई खतरनाक बात दिखाई नहीं देती। अगर मेरे वक्तव्यके परिणामस्वरूप हिन्दुओंमें ऐसी शक्तिका संचार हो जाये जिससे वे खतरा आ पड़नेपर अपनी रक्षा कर सकें तो मुझे प्रसन्नता ही होगी। जबतक हम एक-दूसरेसे डरना न छोड़ देंगे, तबतक हमें एकताकी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। पत्र-लेखकने कोई दूसरा तरीका भी तो नहीं सुझाया। जो हिन्दू अपने पड़ोसीसे दिन-रात डरा करता हो उसको मैं सिवा इसके क्या सलाह दें सकता हूँ कि या तो उसे अपने बचावमें अपना हाथ उठाये बिना अहिंसात्मक ढँगसे मर-मिटना चाहिए या हिंसात्मक ढंगसे घूँसेका जवाब घूँसेसे देकर अपनी रक्षा करनी चाहिए? वे आगे लिखते हैं:

कोई भी समझदार हिन्दू या मुसलमान आपकी इस रायको नहीं मानेगा कि पण्डित मालवीयजी मुसलमानोंके दुश्मन नहीं है। वे तो मुसलमानोंके खुल्लम-खुल्ला दुश्मन हैं; सूरजकी रोशनीकी तरह उनकी दुश्मनी साफ देखी जा सकती है। मैं तो कहता हूँ कि खुद हिन्दू भी आपको इस बातको सच नहीं मानेंगे। लाला लाजपतराय भी पण्डित मालवीयजीकी श्रेणीके ही हैं। जयरामदास और चौइथरामके बारेमें तो आप खुद अपने ही साथ बेइन्साफी कर रहे हैं।