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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अवसरोंपर अमुक प्राणियोंकी कुरबानीका हुक्म है और इनमें गाय भी शामिल है। किन्तु गायकी कुरबानी कोई अनिवार्य बात नहीं है। तथापि यह देखते हुए कि उसकी अनुमति दी गई है, यह चीज अनिवार्य तब हो जाती है, जब कोई तीसरा पक्ष मुसलमानोंसे जबरदस्ती उसे बन्द कराना चाहे। इसी तरह हिन्दुओंके लिए भी मसजिदोंके सामने बाजा बजाना जरूरी नहीं है, किन्तु जैसे ही मुसलमान डंडेके जोरपर मसजिदके सामने हिन्दुओंके बाजेको बन्द कराना अपना हक मानने लगता है वैसे ही हिन्दुओंके लिए भी बाजा बजाना कर्त्तव्य बन जाता है। इसलिए दोनों पक्षोंको चाहिए कि वे इन दोनों मसलोंको आपसमें मिलजुलकर तय कर लें।

धर्म-परिवर्तनपर भोपाल राज्यका परिपत्र

एक महीनेसे ऊपर हो गया जब कुछ मित्रोंने मेरे पास धर्म-परिवर्तनके सम्बन्धमें भोपाल राज्यके कानूनकी एक प्रति भेजी थी। उसपर मैंने उस समय जान-बूझकर कुछ नहीं कहा, क्योंकि उस समयमें हिन्दू-मुस्लिम तनावके सम्बन्धमें अपने विचार प्रकाशित करनेकी स्थितिमें नहीं था और मैं इस मामलेकी कुछ और जानकारी प्राप्त कर लेना चाहता था। इस बीच मैंने इस विषयपर डा० अन्सारीके विचार पढ़े हैं। परिपत्रका अनुवाद नीचे दिया जा रहा है:

७ जुलाई, १९२० के जरीदेकी प्रति, ५ जुलाई, १९२० का प्रस्ताव संख्या १७

भोपालकी महाविभव शासिकाने शाहजहानी दण्डसंहिता, नियम १, १९१२ के खण्ड ३०० अर्थात् भोपालकी संगृहीत दण्ड संहिताके खण्ड ३९३ के अनुसार आदेश दिया है कि खण्ड ३९३ (क) के बाद निम्नलिखित अंश जोड़ दिया जाये; यह अंश प्रकाशन तिथिसे ही लागू हो जायेगा और अमल में लाया जायेगा:

इस्लाम स्वीकार करनेके बाद उसका त्याग

खण्ड ३९३ (क): जो भी व्यक्ति एक बार इस्लामको स्वीकार कर लेनेके बाद अपना यह धर्म छोड़ेगा, वह तीन सालकी सख्त या सादी कैदकी सजा या जुर्मानेका अथवा दोनोंका भागी होगा।

यह सभी सम्बन्धित व्यक्तियोंके सूचनार्थ प्रकाशित किया जा रहा है।

कहा नहीं जा सकता कि इसमें जो तिथियाँ दी गई हैं वे सही हैं अथवा नहीं। अगर उन्हें सही मान लिया जाये तो इसका मतलब है कि यह कानून अभी हालका बना हुआ है। लेकिन इसके हालके बने हुए या बहुत पुराने होनेसे कोई फर्क नहीं पड़ता। सवाल यह है कि विशुद्ध इस्लामकी दृष्टिसे यह कानून अच्छा है या बुरा। हमारे सामने आदर्श यह है कि दोनों---ओर दोनों ही क्यों, सभी---धर्मोके सम्बन्ध परस्पर शान्तिपूर्ण हों और अगर लोग चाहें तो एक धर्मको छोड़कर दूसरे धर्मको स्वीकार कर लें। दूसरे शब्दोंमें, हमारा आदर्श यह है कि धर्मके मामलेमें कोई जोर-जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए। हम हिन्दुओं और मुसलमानोंमें से कुछ लोग