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'छोप' या कताई-प्रतियोगिता

प्राप्त राजस्वके सम्बन्धमें भारत सरकारकी नीति जेनेवा-सम्मेलनके सामने रखी जा सके। यहाँ पिछली रात जब मैंने एक सभामें श्रोताओंके सामने कहा: भारत सरकारने घोषणा की है कि यहाँके लोगोंको अफीम खानेका "अधिकार" है तो लोग तिरस्कारके साथ हँस पड़े। काश! उस तिरस्कारपूर्ण हँसीको जेनेवाके अफीम-सम्मेलनके लोग सुन पाते। इतनेसे ही सम्मेलनके प्रतिनिधियोंको इस विषयमें भारतके लोकमतका सही अन्दाज हो जाता। अब मुझे इस बातका यकीन हो गया है कि यहाँ असममें अफीम-बन्दीकी दिशामें पर्याप्त काम होगा।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १२-६-१९२४

११८. 'छोप' या कताई-प्रतियोगिता

एक पंजाबी मित्र कताई-प्रतियोगिताओंके बारेमें, जो कभी पंजाबमें सभी जगह होती थी और जिनका रिवाज, हम आशा करते हैं, मिटने नहीं दिया जायेगा, इस प्रकार लिखते हैं। लेखके साथ इन सज्जनने ऐसी एक प्रतियोगितामें भाग लेनेवाली बहनोंका, जो अपना-अपना चर्खा चला रही हैं एक चित्र भी भेजा है। यह चित्र प्रेषकके हाथका ही है।

बीस या पच्चीस वर्ष पहले, पंजाबके गाँवों तथा शहरोंमें भी, वहाँकी स्त्रियों द्वारा कताई-प्रतियोगिताओंके आयोजित किये जानेका-- जिन्हें छोप कहते थे---रिवाज बहुत आम था। इस आम प्रतियोगितामें सभी उम्रकी स्त्रियाँ भाग लेती थीं। इन प्रतियोगिताओंमें छोटी-छोटी लड़कियाँ भी अपने छोटे-छोटे चरखे लिए हुए सहायक सेनाके रूपमें शामिल हुआ करती थीं। ये बहनें दो बजे रातसे ही उठ जाती थीं। सबके पास बराबर-बराबर तोलकी धुनी हुई रूई होती थी और वे स्त्रियाँ इस रूईकी पूनियाँ बनाकर नियत समयपर बड़ी लगन और तत्परताके साथ सूत कातना शुरू कर देती थीं। यह प्रतियोगिता बहुधा सात या आठ बजे समाप्त कर दी जाती थी, ताकि स्त्रियाँ अपने-अपने निजी और घरेलू कामकाज निबटा सकें। वे चरखा चलाती हुई राम-बनवास, गोपीचन्दके वैराग्य अथवा पूरन भगतके साधु जीवनसे सम्बन्धित पवित्र गीत आह्लादपूर्ण स्वरमें गाती जाती थीं और उनके चरखोंकी मधुर गू़ँज गुन-गुनाहट वाद्यका काम देती थी। इन छोपोंके स्वस्थ और शुद्ध वातावरणका अनुमान ही किया जा सकता है, वर्णन नहीं। दुःखकी बात है कि ऐसे आनन्दित कर देनेवाले दृश्य अब बहुत दुर्लभ हो गये हैं और उनको देखनेके अवसर कभी-कभी ही आते हैं।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १२-६-१९२४