पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/२८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

१२७. गुजराती आर्यसमाजियोंके प्रति

मुझे हिन्दुस्तानके सभी हिस्सोंसे आर्यसमाजोंके तार और पत्र मिले हैं और मैं उनका जवाब 'यं० इं०[१]' में दे चुका हूँ। गुजरातके आर्यसमाजी भी क्रोधित हुए हैं। मैं यह आशा जरूर रखता था कि कमसे-कम वे तो मेरे अर्थका अनर्थ नहीं करेंगे; क्योंकि वे मुझे शायद ज्यादा समझते हैं। गुजराती [ आर्यसमाजियों ] के पाँच पत्र तो मैं पढ़ चुका हूँ---अभी और भी होंगे। उन्हें भी बहुत दुःख हुआ है। वे मुझे माफ करें। जो बात मुझे सच मालूम होती है उसे मैं सरल भावसे कहता हूँ। इसमें दुःख माननेकी क्या जरूरत है, यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। यदि हमें किसीकी अप्रिय बातसे निरन्तर दुःख होता रहे तो हममें सहिष्णुता कब और किस तरह आयेगी?

इन पाँचों पत्रोंमें मुझे दलीलोंके द्वारा बात समझानेकी कोशिश बहुत कम की गई है। एक महाशय तो इतने क्रुद्ध हो गये कि उन्होंने मुझे आत्महत्या करनेकी सलाह दी है। वे लिखते हैं:

अब अगर आपके द्वारा लाभ पहुँचता हो तो भी देश उसे नहीं लेना चाहता; इसलिए यह पत्र लिखकर मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि अब आप रामनाम भजें और स्वर्ग प्राप्त करनेकी कोशिश करें।

दूसरे लिखते हैं कि मैंने हमेशा मुसलमानोंको ही बढ़ावा दिया है। एक सज्जनने हिन्दुओंके दुःखोंकी कहानी अखबारोंसे निकाल-निकालकर भेजी है।

इन सब बातोंका बहुत-कुछ जवाब मेरे 'यं० इं०' में लिखे लेखमें आ जाता है। यहाँ इतनी बात और कहना चाहता हूँ कि यह सारा क्रोध असहिष्णुताका ही द्योतक है। अभी हममें एक दूसरेकी टीकाको सहन करनेकी शक्ति नहीं आई है। सार्वजनिक जीवनमें ऐसी शक्तिका आना बहुत जरूरी है। हिन्दुओंपर जो मुसीबतें गुजर रही हों उनकी जाँच करने के लिए मैं तैयार हूँ; मैं अखबारोंमें छपनेवाली तमाम बातोंको माननेके लिए तैयार नहीं। मेरा सभी पाठकोंसे निवेदन है कि वे अखबारोंमें छपी बातोंका बहुत-सा हिस्सा झूठ ही समझें। यदि मेरे नाम पत्र भेजनेवाले भाई मुसलमानोंके अखबारोंको पढ़ेंगे तो वे देखेंगे कि उनमें हिन्दुओंपर कितने ही आक्षेप किये जाते हैं। हिन्दू लोग उनका क्या जवाब दे सकते है? किन्तु हिन्दू अखबारोंकी तरह उनके अखबारोंमें भी बहुत-सी बातें गढ़ी हुई रहती है। यदि हिन्दू किसी संगठनके द्वारा अपने डरको दूर कर सकते हों तो मैं उस संगठनमें शामिल हो सकता हूँ। किन्तु मैं 'संगठन' का अर्थ सिर्फ 'अखाड़ा' ही समझता हूँ। मैं उसमें नहीं पड़ता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि इससे तात्कालिक बचाव सम्भव नहीं है। उसके लिए तो स्वभावमें निर्भयता लानी चाहिए। यदि वह अखाड़ेके द्वारा आ सकती

 
  1. देखिए "आर्यसमाजी भाई", १२-६-१९२४