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गुजराती आर्यसमाजियोंके प्रति

हो तो हिन्दू खुशीसे अखाड़े बनायें। मैंने यह तो कभी नहीं लिखा कि अखाड़े बनाये ही न जायें। मैंने गुजरातके पुराणी बन्धुओंके अखाड़ोंका कभी विरोध नहीं किया, बल्कि उनके लिए मैंने अपनी पसंदगी व्यक्त की है। मेरे कहनेका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हिन्दुओंके लिए मुसलमानोंके हमलेसे अपना बचाव करनेका उपाय संगठन नहीं है। ऐसे संगठनोंसे झगड़ा बढ़ता ही है, घटता नहीं।

यदि हम अपने आपसे इस तरहके सवाल पूछें तो इस प्रश्नका निपटारा हो सकता है: क्या हम हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य चाहते हैं? क्या उसकी जरूरत है? अगर हम उसे चाहते हैं और वह आवश्यक है तो हिन्दुओंको प्रतिकारकी तैयारी छोड़नी ही पड़ेगी; नहीं तो फिर शरीरबलके द्वारा सरकारका और उसी प्रकार मुसलमानोंका भी मुकाबला करके खूनकी नदियाँ बहाकर शान्ति प्राप्तिके लिए खपना पड़ेगा। यह भी हिन्दुओं और मुसलमानोंके सम्बन्धमें तो असम्भव है। और जहाँतक सरकारका सम्बन्ध है, अंग्रेजोंके साथ दुश्मनी ठानकर उन्हें यहाँसे बाहर निकाल देनेका हेतु भी है, और कदाचित् वह सम्भव भी हो जाय; क्योंकि अंग्रेज लोग इस देशको अपना देश नहीं मानते। यदि वे यहाँसे ऊब उठें तो अपने देशको चले जा सकते हैं। परन्तु हिन्दुओंकी तरह मुसलमानोंका देश तो यही है। मैं उन्हें हिन्दुस्तानसे भगा देना तो बिलकुल असम्भव मानता हूँ। अतएव, एकमात्र उपाय यह है कि हम उनके साथ शान्तिपूर्वक रहें अन्यथा अपने जीवनकी बागडोर अंग्रेजी सरकारके हाथ सौंप दें।

अब हम इस बातका विचार करें कि हमें करना क्या है; मुसलमान लोग हमारी स्त्रियोंका जो अपहरण करते हैं, हमें उससे बचना है। इस तरहका बचाव कोई भी हिन्दू खुद अपनी जानको हथेलीपर रखकर ही कर सकता है। सभी मुसलमान तो स्त्रियोंका अपहरण करते नहीं हैं? फर्ज करें कि कुछ लोग धर्मके नामपर ऐसा करते हैं। परन्तु हिन्दू-स्त्रियोंका अपहरण क्या कुछ हिन्दू स्वयं नहीं करते? फर्क सिर्फ इतना ही है कि हिन्दू अपहरणकर्त्ता अपनी विषय-वासनाकी तृप्तिके लिए करता है। किन्तु यदि उनके समक्ष रक्षा करनेकी शक्ति हममें न हो तो वह शक्ति हममें कौन भर देगा? ऐसी व्याधियोंका स्थायी और तुरन्त फलदायी इलाज मैं बता चुका हूँ। वह है सत्याग्रह अर्थात् बिना प्रहार किये बचाव करते हुए खुद मर मिटना। ऐसा सत्याग्रह तो स्त्री और बालक भी कर सकते हैं। इसका अभ्यास तमाम हिन्दू क्यों न करें? प्रहार करनेकी शक्ति प्राप्त करनेके लिए शरीरबल बढ़ानेकी जरूरत है और मरनेकी शक्ति प्राप्त करनेके लिए आत्मबल बढ़ाने की। यदि समझ में बैठ जाये तो आत्मबलका विकास अपेक्षाकृत ज्यादा आसान है। शरीरसे अपंग मनुष्य भला शरीरबल कैसे बढ़ा सकता है? किन्तु आत्मा तो किसीकी भी अपंग नहीं होती। हम स्थिर चित्तसे विचार करें तो इतना सीख ही सकते हैं कि यदि कोई हमारे स्वजनोंपर हमला करे तो हम उनकी हिफाजत करते हुए मर मिटें। परन्तु ऐसी तैयारी करनेके लिए हमें शान्त बने रहनेकी आदत डालनी चाहिए। हमें अपना गुस्सा रोककर उससे नवीन शक्ति पैदा करनी चाहिए। यदि हम ऐसी शक्ति पैदा करना चाहते हों तो हमें अखबारोंके लेखोंको पढ़कर आग-बबूला नहीं हो जाना

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