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कार्यकर्ताओंसे

यह बात सार्वजनिक जीवनकी स्वच्छतासे ही आँकी जा सकती है। हम वर्तमान शासन-तन्त्रका विरोध कर रहे हैं क्योंकि हमें विश्वास हो गया है कि वर्तमान तन्त्र मलिन है। इसका अर्थ ही यह हुआ कि हम स्वयं अपेक्षाकृत स्वच्छ हैं और स्वच्छ तन्त्रकी स्थापना करना चाहते हैं। इसलिए हमारे सार्वजनिक जीवनमें स्वच्छता आनी चाहिए और वह भी इस हदतक कि हमारा विरोधी भी उसे देख सके और फिर स्वीकार करे। असहयोग आन्दोलनका मतलब ही शत्रुको मित्र बनाना है। जिसे इस सूत्रपर विश्वास न हो वह कभी शान्त असहयोगी नहीं बन सकता।

लेकिन हममें एक दोष है, उसपर भी विचार कर लेना आवश्यक है। हम दूसरोंमें और अपने साथियोंमें भी दोष देखनेके लिए तत्पर रहते हैं। हम उनके गुण तो देखते ही नहीं हैं। परिणामस्वरूप हम उनकी केवल निन्दा ही करते रहते हैं। एक लोकसेवक बहुत काम करता है तथापि यदि वह कहीं आँखें लाल करता है अथवा तीखी बात कहता है तो हम उसे बिलकुल निकम्मा मान लेते हैं। यदि उसने हमारी आवभगत नहीं की अथवा उसने हमारी बात नहीं समझी तो उसकी सारी सेवा मिट्टीमें मिल गई। मुझे ऐसे स्वभावका अनुभव बहुत हुआ है, इसीलिए मैं लोगोंको परनिन्दाकी इस आदतके विरुद्ध भी सावधान कर देना चाहता हूँ।

इस तरह पाठकोंके आगे दोनों पक्षोंको प्रस्तुत करनेका हेतु यह है कि जिसने उजला पक्ष अर्थात् केवल दूध ही देखा हो वह निरीक्षण करे और यदि उसे मैल दिखाई दे तो उसे स्वीकार करे तथा जिसकी नजरमें मैल-ही-मैल आया हो वह अच्छाइयाँ भी देखनेका प्रयत्न करे। यदि वह इसके बाद तटस्थ भावसे पत्र लिखेगा, तो उसके पत्रमें दिया गया समाचार हमारे लिए सहायक होगा।

अन्त मैं मुझे यह भी कहना है कि मैं कर्णधार नहीं बनना चाहता। कर्णधार तो वल्लभभाई हैं ही। मेरा काम तो यथासम्भव सलाह देना ही है। 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' के सम्पादनका कार्य मेरे हाथमें है; यह कार्य मेरे लिए पर्याप्त है। यदि लोग इस कार्यको मुझसे ले लेंगे तो मेरे पास आश्रमका कार्य है। आज तो मैं आश्रमके कामके लायक भी नहीं रहा हूँ, क्योंकि मेरे पास इन दोनों पत्रोंके कार्यसे कोई समय ही नहीं बचता। इसलिए इस समय गुजरात और समस्त राष्ट्रके लिए मेरा उपयोग केवल सलाहकार के रूपमें ही हो सकता है। तथ्यपूर्ण पत्र मुझे अपने विचारोंको व्यवस्थित करनेमें बहुत सहायता देते हैं।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १५-६-१९२४