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१३१. टिप्पणी

मिथ्या भ्रम

एक सज्जन लिखते हैं कि कितने ही बूढ़े लोग अपने पौत्रोंको देखकर, उन बच्चोंके बापकी ओर मुँह करके यह कहते और उनके प्रति अपना स्नेह प्रकट करते हैं: "हम और तुम तो काफी पहन-ओढ़ चुके; और अब खादी पहनने लगे हैं। परन्तु यदि हमने इन कोमल बच्चोंको अभीसे खादी पहना दी तो इन बेचारोंका कुछ भी लाड़-प्यार न हुआ समझो।" उक्त सज्जन पूछते हैं कि ऐसे धर्म-संकके समय क्या करना चाहिए? मुझे तो इसमें कुछ भी धर्म-संकट नहीं दिखाई देता। हम बड़े-बूढ़ोंके इस लाड़-प्यारकी भावनाका खयाल करके नन्हे-मुन्नोंका भविष्य कैसे बिगाड़ सकते हैं; अथवा हिन्दुस्तानकी फाकेकशी मिटानेके इस महान् संघर्षको धक्का कैसे पहुँचा सकते हैं? हम जिस चीजका इस्तेमाल करना अपना धर्म समझते हैं, उसे हम ऐसे प्रेमके वशीभूत होकर किस तरह छोड़ सकते हैं? फिर यह महज भ्रम है कि विदेशी या देशी मिलोंका कपड़ा ज्यादा महीन होनेके कारण ज्यादा अच्छा होता है। आज कितने ही बच्चे ऐसे हैं जो महीन कपड़ोंको नहीं छूयेंगे और खादी ही पहनेंगे। बच्चोंकी तो हम जैसी आदत डालते हैं वैसी ही पड़ जाती है। मेरी तो यही समझमें नहीं आता कि मिलके कपड़े पहनानेमें कौन-सा दुलार है? कुछ साल बाद जब सब लोग खादी पहनने लगेंगे, हम यह भी मानने लग जायेंगे कि खादी पहनानेमें ही प्यार है। निर्दोष बालकोंके छोटे-छोटे शरीरोंपर सफेद दूध जैसी खादी जितनी फबती है उतने रंग-बिरंगे, शरीरसे चिपकने वाले और मैलखोरे कपड़े कभी नहीं फबते। फिर हमारे देशकी आबोहवामें तो बालकोंको बहुत ही कम कपड़ा पहनाना ठीक है। हमारे बालकोंके लिए जूते, मौजे और ज्यादा कपड़े बीमारियोंके घर हैं। यह उन्हें नाजुक बनानेका रास्ता है और इसमें फ़जूलखर्ची होती है। हम बच्चोंको उनका झूठा दुलार करके शुरूसे ही बुरी आदत डाल देते हैं। यह कैसा अन्याय है?

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १५-६-१९२४