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१३२. पत्र: नवीनचन्द्रको

ज्येष्ठ सुदी १४, १९८० [१६ जून, १९२४]

तुमने पूछा है, जीवनके उच्चतम आदर्शको व्यवहारमें उतारनेके लिए क्या करना चाहिए? तनिक विचार करनेसे मालूम होगा कि इसका उत्तर प्रश्नमें ही निहित है। यदि कोई आपसे पूछे, मुझे जो वस्तु अच्छी लगती है उसे खानेके लिए मैं क्या करूँ तो आप उससे कहेंगे आप उसे खायें। इसी तरह आदर्शके अनुसार चलते-चलते हमें सत्यके आचरणका भान हो जायेगा। सच पूछो तो असली कठिनाई आदर्शके प्रति रुचि उत्पन्न करने की है। प्रायः ऐसा होता है कि जिस वस्तुके बारेमें हम यह मानते हैं कि वह हमें अच्छी लगती है, वह हमें वास्तवमें अच्छी नहीं लगती। यदि सत्य-पालन आदर्श हो तो हमें सत्यका आचरण करना चाहिए। यदि ब्रह्मचर्य आदर्श हो तो उसका पालन करते हुए हमें आनन्दका अनुभव होना चाहिए। यदि शरीर आदर्श हो तो हमें रुई धुनने, सूत कातने और कपड़ा बुननेमें आनन्द आना चाहिए और यदि आपने सेवाका आदर्श बनाया हो तो आपको सेवा करते हुए कभी थकना नहीं चाहिए। यदि हम अध्यापन कार्य द्वारा सेवा करना चाहते हों तो हमें उसके लिए अपनी सामर्थ्य-भर प्रयत्न करना चाहिए।

मोहनदासके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्र (जी० एन० २१७०) से।

१३३. जे० बी० पेटिटके पत्रपर टिप्पणी[१]

[ १७ जून, १९२४ के पश्चात् ]

इसे बनारसीदासको दिखा दें। उन्हींसे पूछिए कि यह उनसे किसने कहा था कि उनके द्वारा माँगी गई रकमका एक भाग श्री पेटिटने देनेका वचन दिया है।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ९९७८) की फोटो-नकलसे।

 
  1. उक्त टिप्पणी जे० बी० पेटिटसे प्राप्त उनके १७ अगस्त, १९२४ के निम्न पत्रकी पीठपर लिखी मिली है; "मुझे याद नहीं कि मैंने कभी पण्डित बनारसीदासके वेतन तथा उनके व्ययका एक अंश भी उन्हें देनेका वादा किया है। ऐसा खयाल पड़ता है कि इस प्रकारकी सहायता के लिए पण्डित बनारसीदासका एक पत्र एक वर्षसे भी अधिक पहले आया था और वह आई० आई० सी० ए० की समितिके सामने रखा गया था। समितिने उसे अस्वीकार कर दिया था। समिति चाहती थी कि श्री बनारसीदास संघके पूरा समय काम करनेवाले कर्मचारी बन जायें; किन्तु श्री बनारसीदासने ऐसा करनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की, इसलिए उनकी अर्जी नामंजूर कर दी गई। इसलिए मेरा खयाल है, समिति उनके खर्चके लिए कोई रकम