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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ऐसे हैं जो मन, वचन और कर्मसे अहिंसाको नहीं मानते और फिर भी वे अहिंसा नीतिके हामी होनेका दावा करते हैं, अतः ऐसे हम सभी लोग, चाहे परिवर्तनवादी हों या अपरिवर्तनवादी, झूठे हैं।

विशेष अधिवेशन

मुझे मालूम हुआ है कि डा० पट्टाभि सीतारामैयाने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीकी आगामी बैठकमें एक विशेष अधिवेशनके लिए प्रस्ताव पेश करनेका अपना इरादा सूचित किया है। विशेष अधिवेशन बुलानेका कोई कारण दिखाई नहीं देता। कांग्रेसके प्रस्ताव मौजूद ही हैं। उनके अर्थके विषयमें कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा मतभेद हो तो भी दोनों पक्ष, एक-दूसरेसे मतभेद कायम रखते हुए भी, काममें जुट सकते हैं। जरूरत सिर्फ इस बातकी है कि सदस्यगण, अब आगामी छः महीनोंमें काम किस प्रकार करना चाहिए, इसका निर्णय कर लें। कांग्रेसके अधिवेशनमें उसकी नीतियाँ निश्चित की जा सकती हैं। विशेष अधिवेशन हमारी अनिश्चितता, उदासीनता और निष्क्रियता दूर करनेमें कुछ भी मदद न कर सकेगा। मेरा निश्चित मत है कि जबतक एक पक्ष दूसरे पक्ष पर देशकी प्रगतिका बाधक होनेका आरोप लगाता रहेगा तबतक उक्त तीनों बुराइयाँ बनी ही रहेंगी। मेरी रायमें तो जो लोग अपनी विवेक-बुद्धिका पूरा उपयोग करते हुए कार्य करते रहते हैं, वे प्रगतिमें कभी बाधक नहीं होते। लेकिन वह व्यक्ति प्रगतिमें अवश्य ही बाधक होता है जो जड़तावश न तो खुद सोचता-विचारता है और न अपने मनसे ही काम करता है, अथवा न इस भयसे ही कुछ कर पाता है कि कहीं दूसरे उससे नाराज हो जायें। दूसरेके दिलको चोट लगे तब भी हममें जरूरत पड़नेपर "ना" कहनेकी हिम्मत होनी ही चाहिए।

आग भड़कानेवाला साहित्य

एक मित्रने मुझे "रंगीला रसूल" नामक एक पुस्तिका भेजी है, जो उर्दू में लिखी गई है। लेखकका नाम नहीं दिया गया है। प्रकाशक हैं--आर्य पुस्तकालय लाहौरके प्रबन्धक। पुस्तिकाका नाम ही बहुत उद्वेगकारी है। उसकी विषय-वस्तु भी उसीके अनुरूप ही है। उसके कुछ अंश ऐसे हैं, जिनका अनुवाद प्रस्तुत करूँ तो उससे पाठकोंकी परिष्कृत भावनाको धक्का लगेगा। मैंने मनमें सोचा कि पुस्तिकाको लिखने या छापने के पीछे लोगों का रोष भड़कानेके अलावा और क्या उद्देश्य हो सकता है। पैगम्बर साहबके लिए अपशब्दोंका प्रयोग करने या उनका उपहास करनेसे कोई मुसलमान अपने धर्मसे विमुख नहीं हो सकता और न ऐसे हिन्दूको ही कुछ लाभ हो सकता है जिसके मनमें अपने धर्मके प्रति शंकाएँ हों। इसलिए धर्म-प्रचारके कार्यकी दिशामें इस पुस्तिकाका कोई महत्व नहीं है और इससे जो हानि हो सकती है, वह तो स्पष्ट ही है।

एक दूसरे मित्रते "शैतान" शीर्षक एक पर्चा भेजा है। यह एक सफेका पर्चा है और इसका मुद्रण पब्लिक प्रिंटिंग प्रेस, लाहौरमें हुआ है। इसमें भी मुसलमानोंको ऐसी गालियाँ दी गई है, जिनका अनुवाद करना उचित नहीं होगा। मैं जानता हूँ