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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

होती है और वे उस सविनय अवज्ञाकी तैयारीमें बाधक होते हैं, जो अ० भा० कां० क० की रायमें, शुद्धसे-शुद्ध बलिदानको उत्साहित करती है और जो पूर्ण शान्तिमय वातावरणमें ही किया जा सकता है।[१]

दिखाई तो पड़ता है, इस मौकेपर तो मैं ठीक वही काम कर रहा हूँ जिससे बचनेकी इच्छा करनेका मैं दावा किया करता हूँ--अर्थात् कांग्रेसमें दल पैदा करना और देशमें विवाद खड़ा करना। फिर भी मैं पाठकोंको यकीन दिलाता हूँ कि यह हालत ज्यादह दिनोंतक न रहेगी। जहाँतक मेरे प्रयत्नका सवाल है मैं इसे ज्यादा दिनोंतक नहीं टिकने दूँगा। अनिश्चितताके वातावरणको समाप्त करनेकी जैसी व्यग्रता और आतुरता मेरे मनमें है वैसी ही दूसरोंके मनमें भी होनी चाहिए। अगर हमें अपनी ठीक स्थिति समझनी हो तो कुछ-न-कुछ वाद-विवाद लाजिमी होता है। मेरे सम्बन्धमें लोग ऐसा मानते हैं कि मैं कुछ चमत्कार करके दिखा दूँगा और देशको उसके लक्ष्यतक पहुँचा दूँगा। खुशकिस्मतीसे मेरे मनमें ऐसा कोई भ्रम नहीं है। हाँ, मैं एक क्षुद्र सैनिक होनेका दावा अवश्य करता हूँ और अगर पाठक मेरी बात पर हँसे नहीं तो मैं उनसे यह भी कह देना बुरा नहीं समझता कि मैं एक कुशल जनरल भी हो सकता हूँ---केवल उन्हीं शर्तोंपर जो सेनामें हुआ करती हैं। मेरे पास ऐसे सैनिक होने चाहिए जो आज्ञा पालन करते हों, जो अपनेतई और अपने जनरलमें विश्वास रखते हों और जो आदेशोंका पालन खुशी-खुशी करते हों। मेरी कार्यविधि हमेशा खुली और तयशुदा होती है। कुछ निश्चित शर्तें रहती हैं। उनकी पूर्तिपर सफलता निश्चित होती है, पर ऐसी हालतमें बेचारा जनरल क्या कर सकता है जब उसके सैनिक उसकी शर्तोंको मानते तो हों, पर खुद उनका पालन न करते हों और हो सकता है कि उनका इन शर्तोंमें विश्वास भी न हो। इन प्रस्तावोंकी तजवीज इसलिए की गई कि इससे सैनिकोंके गुणोंकी परख हो जाये।

बल्कि इसे यों कहना अधिक ठीक होगा कि सैनिकोंकी हालत तो बड़ी अच्छी है क्योंकि वे अपना जनरल खुद चुनते हैं। उनके भावी जनरलके लिए सेवाकी शर्तें जान लेना जरूरी है। मेरी हालत वही है जो १९२० में थी। पर जितने दिन बीते हैं। उतना ही मेरा विश्वास बढ़ गया है। अगर मेरी सेवा चाहनेवालोंके बारेमें भी यही ठीक हो तो मेरा तन और मन---उनका ही है। दूसरी किसी तजवीजमें मेरा विश्वास नहीं है। इसलिए दूसरी किसी शर्तपर वे मुझे नहीं पा सकते। इसलिए नहीं कि मैं राजी नहीं हूँ, बल्कि इसलिए कि मैं उपयुक्त नहीं हूँ। जहाँ किसी ३५ वर्षके हट्टे-कट्टे छः फुट नौजवानकी जरूरत हो वहाँ अगर कोई सफेद बालवाला ५५ बरसका बूढ़ा जिसके दाँत टूट गये हों और जिसकी तन्दुरुस्ती अच्छी न हो, दरख्वास्त लेकर हाजिर हो तो कैसे काम चल सकता है?

इसलिए इन चार प्रस्तावोंको जनरलकी जगहके लिए मेरी दरख्वास्त ही समझिए। इसमें मेरी योग्यता और मर्यादाएँ दोनों आ जाती हैं। इसमें अपना कोई

 
  1. यह प्रस्ताव ज्योंका-त्यों पास किया गया था। देखिए "प्रस्तावः अ० भा० कां० क० की बैठकमें", २९-६-१९२४।