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हिन्दू क्या करें?

होनेके कारण उनमें इतनी नम्रता आ गई कि जिसे भीरुता और दब्बूपन भी कहा जा सकता है। इस तरह यह दुर्गुण उनके सौजन्यका एक स्वाभाविक परिणाम बन गया है।

ऐसा मत रखते हुए भी मेरी यह धारणा नहीं है कि हिन्दुओंकी हदबन्दीकी खासियतका--जो कि बुरी तो है ही--उनकी भीरुतासे कोई खास सम्बन्ध है। आत्मरक्षाके लिए अखाड़ोंके उपयोगपर जो मेरा विश्वास नहीं है, उसका कारण भी यही है। शारीरिक बलको बढ़ानेके लिए मैं उनको उपयोगी मानता जरूर हूँ, मगर आत्मरक्षाके लिए तो मैं आध्यात्मिक शिक्षा-दीक्षाको ही पुनरुज्जीवित करना पसन्द करूँगा। आत्मरक्षाका सबसे अच्छा और चिरस्थायी साधन है--आत्मशुद्धि। मैं इन मिथ्या भयोंसे डरनेवाला नहीं हूँ। अगर हिन्दू लोग सिर्फ आत्म-विश्वास रखें और अपनी परम्पराके अनुसार आचरण करते रहें तो उन्हें गुण्डेपनसे डरनेकी कोई जरूरत ही न रहे। वे जिस घड़ी वास्तविक आध्यात्मिक शिक्षाको फिरसे अपना लेंगे, उसी दिनसे मुसलमानोंके दिलपर उसका असर पड़ने लगेगा और ऐसा हुए बिना रह नहीं सकता। अगर मेरे पास कुछ ऐसे हिन्दू युवकोंकी एक टोली हो, जो खुद अपनेमें भरोसा रखते हों और इसलिए मुसलमानोंमें भी जिनका भरोसा हो तो उनका यह दल कमजोर लोगोंके लिए ढाल बन जायेगा। वे (हिन्दू युवक) यह सिखा देंगे कि बिना मारे किस तरह मरा जा सकता है। मेरे विचारसे दूसरा रास्ता है ही नहीं। जब हमारे पूर्वज लोगोंपर संकट आ पड़ता था तब वे तपस्या---आत्म-शुद्धि करते थे। वे शरीरको असमर्थ समझकर दीनभावसे परमेश्वरसे प्रार्थना करते और तबतक प्रार्थना ही करते रहते जबतक वह उनकी पुकारपर दौड़नेके लिए मजबूर नहीं हो जाता था। लेकिन इसपर मेरे हिन्दू मित्र कहेंगे---हाँ, मगर ईश्वरने तो अवतारोंको धनुष-बाण या चक्र सुदर्शन लेकर ही भेजा। मैं इसकी यथार्थतासे इनकार नहीं करता। हिन्दुओंसे मेरा कहना सिर्फ इतना ही है कि हिन्दू होनेके नाते वे कारणकी अवहेलना करके फल प्राप्त नहीं कर सकते। जब हम काफी तपस्या कर चुकेंगे तब कहीं संग्रामके योग्य बन सकते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या हम पर्याप्त मात्रामें शुद्ध बन गये हैं। व्यक्तिगत पवित्रताकी बात तो दूर रही, क्या अस्पृश्यता-सम्बन्धी अपने पापतक का प्रायश्चित्त हमने तत्पर भावसे किया है? क्या हमारे धर्माचार्य और धर्मगुरु ठीक वैसे ही हैं जैसा उन्हें होना चाहिए? जबतक हम मुसलमानोंके छिद्र ढूँढ़ने में ही अपनी सारी शक्ति लगाते रहेंगे तबतक मानो हम अपने हाथ-पैर अधरमें ही मारते रहेंगे। जो बात अंग्रेजोंके लिए है, वही मुसलमानोंके लिए भी। अगर हमारे दावे सच हैं तो अंग्रेजोंके हृदय जीतनेकी अपेक्षा मुसलमानोंके हृदयको जीतना बहुत ही कम कठिन है। लेकिन हिन्दू मेरे कानमें आकर कहते हैं कि हमें अंग्रेजोंसे तो कुछ उम्मीद है पर मुसलमानोंसे नहीं। मैं उनसे कहता हूँ कि अगर आपको मुसलमानोंसे कुछ आशा नहीं है तो अंग्रेजोंसे आप जो आशा रखते हैं, वह निराशामें परिणत हुए बिना नहीं रहेगी।

दूसरे सवालोंका जवाब संक्षेपमें दिया जा सकता है। समाजके अगुआ लोगोंको गुण्डोंकी जरूरत महसूस हुई, इसलिए उनकी बन आई। अगुआ लोग एक-दूसरेपर