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विवाहमें खादी

एक भाई बढ़वानसे लिखते हैं, झालावाड़ वीशा श्रीमाली स्थानकवासी शाखासे तीन सौ परिवार किसी कारणसे अलग हो गये हैं। उन्होंने कई बातोंमें होनेवाले अपने कई खर्च भी घटा लिये हैं। उनका एक निश्चय यह भी है कि विवाहमें कन्या खादीके वस्त्र और चन्दनका चूड़ा पहने। यदि दूसरे लोग भी इस प्रकारका नियम बना लें तो वे कई दिक्कतोंसे बच जायें और गरीबोंको बहुत मदद मिले। किन्तु उक्त भाईने साथ ही यह भी लिखा है कि इन परिवारोंमें अन्य अवसरोंपर अभी तक विलायती वस्त्र पहननेका ही चलन है और यह चलन सम्भवतः जारी भी रहे। यदि तीन सौ परिवारोंका यह छोटा-सा समुदाय चाहे तो सभी अवसरोंपर खादीके ही प्रयोगका व्रत ले सकता है। बढ़वानमें तैयार की हुई खादी भण्डारमें भरी पड़ी है। खादीके सम्बन्धमें इतना आन्दोलन किये जानेपर भी थोड़ी ही खादी तैयार हुई। यदि वह भी नहीं खपती तो इससे यही प्रकट होता है कि अभी खादी सार्वत्रिक नहीं हुई है; इतना ही नहीं, वह थोड़े-से लोगोंमें भी जड़ नहीं जमा पाई है। कितने दुःखकी बात है कि काठियावाड़की छब्बीस लाखकी आबादी हर वर्ष दस लाखकी खादी भी नहीं खरीद सकती।

एक पाठशालामें एक शिक्षिका लिखती हैं:[१]

एक बहनकी भावनासे ही कितना कार्य हो सकता है, यह इस बातका एक अच्छा उदाहरण है। यदि किसान माँ-बापोंकी सभी पुत्रियाँ भी इस प्रकार अपने पीहरसे रुई मँगायें, बालकोंसे पिजवायें, उसका सूत कतवायें, और खादी बुनवायें और उसके कपड़े सिलवायें तो कितना लाभ हो, इसका हिसाब लोग स्वयं लगा कर देख सकते हैं।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन२२-६-१९२४
 
  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। उसमें लिखा था कि मैं अपने पिताके खेतकी उगाई हुई कपाससे पाठशालामें काते हुए सूतका बना एक रूमाल गांधीजीके लिए भेज रही हूँ।