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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उक्त तीनों उदाहरणोंसे हम देखते हैं कि बुनकरका माल-भोक्ताके पास सीधा नहीं जाता, अपितु व्यापारीकी मार्फत जाता है। सामान्यतः तो ऐसा ही होता है। यदि बुनकर व्यापारीका काम भी करे और कताईपर अपना अंकुश रखे तो स्पष्ट है कि उसकी कमाईमें इजाफा होगा। यदि सभी जगह आन्ध्र-जैसा सूत काता जाये तो उससे ब्रिकीके योग्य साड़ियाँ तैयार की जा सकती हैं और उनको बेचकर अवश्य ही अधिक मुनाफा कमाया जा सकता है।

सामान्य बुनकरको नैतिक उन्नतिका अवकाश नहीं मिलता ऐसी शिकायत है। और यह ठीक भी है। जो कारीगर परिवार युगोंसे बुनाईका धन्धा करते आते हैं उनमें अक्षरज्ञान और नीतिज्ञानका अभाव रहता है। यह स्थिति जाति-प्रथाके कठोर पालनका परिणाम है। शिक्षित लोगोंने आजकल मानो अपना एक अलग वर्ग ही बना लिया है। वे अन्य लोगोंकी ओर अर्थात् कारीगरों और किसानोंकी ओर ध्यान ही नहीं देते हैं । हम सभी शिक्षित लोग कारीगरों और ऐसे ही अन्य वर्गोंकी पीठ- पर सवार हैं। मेरा तो दृढ़ मत है कि यदि शिक्षित वर्ग अशिक्षितोंकी पीठसे नीचे उतर जाये तो अशिक्षितोंके सामने जो समस्याएँ आती रहती हैं, न आयें। हमारी आजकी प्रवृत्तिका उद्देश्य यही है। शिक्षित वर्गके अनेक लोग श्रमका महत्व समझने लगे हैं और अशिक्षित वर्गके शोषणके पापको भी देखने लगे हैं। जबतक और कुछ नहीं होता, समझदार बुनकर अधिक नियमित होकर और अपनी कलाको अधिक व्यवस्थित करके थोड़ा अवकाश निकाल सकता है। ज्यों-ज्यों खादीकी प्रवृत्ति बढ़ती जायेगी त्यों-त्यों बुनाईका काम और सम्बन्धित धन्धे सुव्यवस्थित और सुदृढ़ होते जायेंगे।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २२-६-१९२४

१५१. तीन प्रश्न

एक सज्जन लिखते हैं:---

(१) क्या कताई-बुनाई करनेसे मनुष्य शूद्र नहीं बनता है?
(२) जो मनुष्य अपने बुद्धिबलसे ज्यादा कमाई करता है उसका भी कताई-बुनाई करके आजीविका पैदा करना क्या अर्थशास्त्र के प्रतिकूल नहीं है?
(३) क्या सबका कताई-बुनाई करना श्रम विभाजनके सिद्धान्तको नष्ट नहीं करता है?

मेरे खयालसे शूद्र वह है जो नौकरी या दूसरोंकी मजदूरी करके आजीविका प्राप्त करता है। इस हिसाबसे जितने आदमी नौकरी करते हैं सब शूद्र होते हैं। जो मनुष्य स्वतन्त्र धन्धा करता है उसको शूद्र कैसे माना जाये? इसमें मैं वर्णाश्रमकी कुछ भी हानि नहीं देखता हूँ।