रहें तो किसी दिन मिलन अवश्य होगा। इसीका नाम कौटुम्बिक असहयोग है। जो असहयोग सहयोगकी खातिर किया जाता है वह धर्म है।
मोहनदासके आशीर्वाद
मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ६०१२) से।
सौजन्य: गंगाबहन वैद्य
१५३. पत्र: वसुमती पण्डितको
ज्येष्ठ बदी ७, [२३ जून, १९२४][१]
तुम्हारा सुन्दर अक्षरोंमें लिखा पत्र मिला। अब तो लगता है कि तुमको १० में से ५ नम्बर दिये जा सकते हैं। कापी भेज दूँगा।
यदि त्रुटियाँ अधिक हों तो उनमें से मुख्य-मुख्य चुन लो। पूरी शक्तिसे उन्हींको सुधारो। बाकी सुधार अपने-आप हो जायेंगे।
तुम्हें मानसिक चिन्ता करनेकी निश्चय ही मनाही है। मन ही हमारा मित्र है। और मन ही शत्रु। इसपर अंकुश रखना तो हमारा ही काम है। इसके लिए किसी डाक्टरी दवाकी जरूरत नहीं। तुम अपने मानसिक दुःखमें मुझे पूरा साझेदार बनाओ। जिस दिन तुम पहले-पहल मुझे मिली थीं मेरी दृष्टि उसी दिनसे तुमपर गड़ी हुई है। तभीसे मैंने तुम्हें अपनी सुशील बेटीके रूपमें माना है। मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारे दुःखमें जितना भाग लेना चाहता था उतना नहीं ले सका हूँ क्योंकि मैं तुम्हें उतना समय नहीं दे सका। यह मेरे ही अपंगपनका द्योतक है। लेकिन तुम अपने मानसिक दुःखको अवश्य ही भुला दो। यही वास्तविक और सच कहें तो एकमात्र सुधार है।
रामदासको तुम्हारा पत्र दे दूँगा। अगर वह आना चाहेगा तो उसे रोकूँगा नहीं।
बापूके आशीर्वाद
मैंने [ पिछले पत्रमें ] ज्येष्ठ बदी अमावस्या लिखा हो सो तो याद नहीं आ रहा है । यदि लिखा हो तो गलतीसे लिखा समझना।
प्रतिनिधिने मूल गुजराती पत्र ( सी० डब्ल्यू० ५४७ ) से।
सौजन्य: वसुमती पण्डित
- ↑ वसुमती बहनको गांधीजीके १३, १६ और २० जून, १९२४ को लिखे पत्रोंसे प्रतीत होता है कि यह पत्र भी उन्होंने उसी वर्षमें लिखा होगा। इस वर्ष ज्येष्ठ बदी सप्तमी, २३ जूनको पड़ी थी।