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१५४. भेंट: एसोसिएटेड प्रेसके प्रतिनिधिसे[१]

[ अहमदाबाद,
२४ जून, १९२४ ]

आपने जो कुछ देखा है, उसके बावजूद क्या आपको यह विश्वास है कि आप आपसी कलहको रोक सकेंगे? श्री गांधीने उत्तर दिया:

अवश्यमेव। मुझे तो ऐसी कोई बात नजर नहीं आती जिससे मैं आन्तरिक झगड़ोंको न होने देनेके बारेमें निराश हो जाऊँ। हो सकता है आपसी कलहका लोग अलग-अलग अर्थ लगायें किन्तु मुझे यकीन है कि कोई भद्दे झगड़े सामने नहीं आयेंगे। मैं अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटीके सदस्योंको चाहे वे स्वराज्यवादी हों या अपरिवर्तनवादी; इतना देशभक्तिपूर्ण अवश्य मानता हूँ कि वे किसी भी अन्य प्रश्नकी अपेक्षा देशके कल्याणका विचार पहले करेंगे। यह सर्वथा सत्य है कि स्वराज्यवादी अपने विचारोंके बारेमें उतने ही उत्कट हैं जितना मैं स्वयं अपने विचारोंके बारेमें हूँ। मैं उन्हें भी देशप्रेमके लिए उतना ही श्रेय देता हूँ जितना अपने-आपको देता हूँ। इस स्थितिमें मुझे ऐसा कोई भी कारण नजर नहीं आता जो दोनों पक्षोंके लिए एक समझौतेपर पहुँचना और अपने-अपने विचारके अनुसार कार्य करना असम्भव कर दे।

श्री गांधीसे दूसरा प्रश्न यह पूछा गया "क्या आप ऐसा नहीं मानते कि नवयुवक कार्यकर्ताओंके लिए चरखा चलाना बड़ा ही नीरस कार्य है?" उत्तरमें उन्होंने कहा:

यह केवल उन्हीं लोगोंको बहुत नीरस लग सकता है जिन्होंने उसे चलाया नहीं है और यह सोचनेका कष्ट नहीं किया कि वह आर्थिक उन्नति तथा एकताकी दृष्टिसे कितना उपयोगी है। जिन्होंने पश्चिमी परिस्थितियोंके अनुसार स्थिर किये गये पाश्चात्य लेखकोंके अर्थशास्त्रके सिद्धान्तोंके आधारपर अपने विचार बनाये हैं उनका ध्यान भारतकी विशेष परिस्थितियोंकी ओर नहीं गया है। मैं बार-बार कह चुका हूँ कि भारतकी समस्या पूर्ण रूपसे उसकी अपनी विशिष्ट समस्या है। मैंने जिन बातोंकी वकालत की है लोग उनके बारेमें चाहे कुछ भी निर्णय दें, किन्तु इतिहास चरखेके सम्बन्धमें एक ही निर्णय देगा और वह यही है कि चरखा ही एकमात्र ऐसा साधन था जो भारतको अपने पैरोंपर खड़ा कर सकता था। मैं जानता हूँ कि इसमें कठिनाइयाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं, किन्तु वे दुस्तर नहीं हैं और वे निश्चित रूपसे एवरेस्टकी चोटीपर पहुँचने जैसी कठिन भी नहीं है; और यदि किसी दिन कुछ बहादुर अंग्रेज इस साहसिक कार्यमें सफल हो गये तो इससे संसारको क्या लाभ होगा यह विशेषज्ञ ही जानें; किन्तु इतना तो एक साधारण व्यक्ति भी बता सकता है कि चरखेकी

 
  1. गांधीजीसे यह भेंट साबरमती आश्रममें दोपहर बाद की थी।