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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे खुश करनेके लिए खादी पहनना एकदम निरर्थक है और खास-खास मौकोंपर पहनना कोरा ढकोसला। क्या आप इस बातसे सहमत नहीं हैं कि हमें अपने राष्ट्रीय जीवनसे सरपरस्ती जाहिर करने या पाखण्डपूर्ण आचरण करनेको निर्मूल कर दिया जाना चाहिए और यदि आप खादीकी सामर्थ्यके कायल हों तो आप उसे इसलिए न अपनायें कि मैं उसकी हिमायत करता हूँ, बल्कि इसलिए कि वह आपके जीवनका एक अंग हो गया है। बड़े लाटके यहाँ होनेवाले समारोहोंमें शामिल होनेके लिए एक खास पहनावेमें जाना पड़ता है। यह बात ठीक है। मगर मुमकिन है आगे चलकर किसी भी दिन खादी पहनकर आनेकी मुमानियत कर दी जाये और फिर एक कदम बढ़कर छोटी और बड़ी धारासभाओंमें भी खादी पहनकर न आनेका हुक्म जारी हो सकता है।

एक अन्य मुश्किल सवाल वकालत करनेवाले वकीलोंका है। मुझे तो यह साफ दिखाई देता है कि अगर हम उनके बिना कांग्रेसका काम नहीं चला सकते तो हमें साफ तौरपर यह बात कबूल करके उस बहिष्कारको समाप्त कर देना चाहिए। मैं मंजूर करता हूँ कि धारासभाके बहिष्कारके समाप्त कर दिये जानेके बाद अदालतोंका बहिष्कार भी स्वभावतः दूसरा कदम हो जाता है। अगर धारासभामें जानेसे कुछ सुविधाएँ प्राप्त हो सकती हैं तो अदालतोंमें वकालत करनेसे भी कुछ सुविधा जरूर होगी। हम सब इस बातको जानते हैं कि स्वर्गीय मनमोहन घोषने अपनी वकालतकी सारी आमदनी गरीबोंकी सहायतामें लगाकर अनुपम सेवा की। अगर सरकारी संस्थाओंमें कोई बात आकर्षक और मोहक न होती तो उनकी हस्ती ही न रही होती। पर यह कोई नई बात नहीं है। हमारा युद्ध शुद्ध आत्मयज्ञका युद्ध है। हम देशके स्थायी लाभके लिए इन संस्थाओंमें सन्देहास्पद, अस्थायी और आंशिक लाभका त्याग करते हैं। अगर हमारे अन्दर इज्जत नामकी कोई चीज हो तो क्या हमें यह उचित नहीं है कि और किसी कारणसे नहीं तो सिर्फ इसी कारणसे कि हमारे आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र तथा दूसरी जगहके जिन वकीलोंकी सनद रद कर दी गई है, हम उन्हींकी खातिर अदालतोंका बहिष्कार जारी रखें? हम प्रतिष्ठाकी परम्पराको तभी स्थापित कर सकेंगे जब हम समाजके अदनासे-अदना व्यक्तिकी भी प्रतिष्ठाका खयाल रखेंगे। इसलिए वकालत करनेवाले वकीलोंको सावधान हो जाना चाहिए। इस प्रतिष्ठाके सामने कौटुम्बिक परिस्थितियोंका विचार नहीं किया जा सकता। यह सोचनेकी भूल हरगिज न करनी चाहिए कि हमारे भीतर आत्म-सम्मानकी भावनाका लोप हो जानेपर भी हम एक वर्षके अन्दर स्वराज्य पा सकेंगे। जबतक कांग्रेस स्वाभिमानी, पराक्रमी, मान-धनी, तेजस्वी, निःस्वार्थ और ऐसे बलिदानी देशभक्त पैदा न करेगी जो किसी भी बातका त्याग करनेसे मुँह न मोड़ें, तबतक हमारे इस दीन देशमें वह स्वराज्य दीर्घकालमें भी स्थापित नहीं हो सकता जिसमें गरीबसे-गरीब व्यक्ति भी भाग ले सकता हो। भले ही आप और मैं देशकी इस नोंच-खटोचमें कुछ ज्यादा फायदेमें रहें, पर यकीनन आप उसे स्वराज्य नहीं कहेंगे।

क्या अब स्कूलोंके बारेमें भी कुछ कहना आवश्यक है? अगर हम अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंमें पढ़ानेका मोह न रोक सकें तो फिर शिक्षा-प्रणालीके हमारे विरोधका