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खुला पत्र: अ० भा० कां० कमेटीसे सदस्योंके नाम

कोई अर्थ मेरी समझमें नहीं आता। यदि सरकारी पाठशालाएँ, अदालतें और धारा सभाएँ इतनी अच्छी चीजें हैं कि हम उनकी ओर खिंचे बिना नहीं रह सकते तो फिर हमारा विरोध वास्तवमें व्यक्तियोंके प्रति है, प्रणालीके साथ नहीं। असहयोगकी कल्पना तो ऊँचे उद्देश्यके लिए पैदा हुई है। अगर हमारी यही इच्छा हो कि प्रणाली ज्योंकी-त्यों रहे सिर्फ अंग्रेजोंके बजाय हम लोग वहाँ जा बैठे तो मैं मानता हूँ कि हमारा बहिष्कार केवल फिजूल ही नहीं, हानिकर भी है। सरकारकी इस नीतिका स्वाभाविक परिणाम होगा हिन्दुस्तानको यूरोपके साँचेमें ढालना और जहाँ हम यूरोपके रंगमें-रंग गये कि बस हमारे अंग्रेज प्रभु खुशी-खुशी सरकारकी बागडोर हमारे हाथोंमें दे देंगे। अपने रजामन्द कारिन्दोंके तौरपर वे हमारा स्वागत करेंगे। उस विनाशकारिणी पद्धतिमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। इतना अवश्य है कि मेरी जितनी थोड़ी-बहुत शक्ति है वह सबकी सब मैं उसके खिलाफ लगा दूँगा। मेरा स्वराज्य तो हमारी संस्कृतिकी आत्माको अक्षुण्ण बनाये रखनेमें है। मैं बहुत-से नये पाठ लिखना चाहता हूँ किन्तु वे निश्चय ही होंगे भारतीय पाटीपर। मैं खुशीसे पश्चिमसे भी कुछ बातें ले लूँगा, पर तब जबकि मैं उसका मूल उसे अच्छे-खासे सूद समेत लौटा सकूँ।

इस दृष्टिसे देखनेपर पाँचों बहिष्कार कांग्रेसके लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। वे जनताके स्वराज्यके लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।

ऐसे भारी प्रश्नका निर्णय केवल हाथ ऊँचे उठाकर नहीं किया जा सकता। दलीलोंसे भी वह हल होनेवाला नहीं है। इसका निर्णय हम सबको अपनी अन्तरात्माकी पुकारपर ध्यान देकर करना चाहिए। इसमें से हर व्यक्तिको चाहिए कि हम एकान्तमें जाकर ईश्वरसे प्रार्थना करें कि वह हमें निश्चित राह दिखाये।

यह आजादीकी लड़ाई आपके और मेरे लिए कोई खिलवाड़ नहीं है। यह हमारे जीवनकी सबसे अधिक गम्भीर वस्तु है। इसलिए अगर मेरा बनाया कार्यक्रम आपको न जचे तो आपका कर्त्तव्य है कि आप चाहे जो हो, उसे तत्काल रद करें।

मातृभूमिकी सेवामें
आपका साथी,
मोहनदास करमचन्द गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २६-६-१९२४