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१५७. "तुमसे तो ऐसी आशा नहीं थी!"

एक प्रतिष्ठित मित्र लिखते हैं:

यदि हम अवसर रहते कारगर प्रयत्न न करेंगे तो आज जो-कुछ पंजाब पर गुजर रही है, कल वही संयुक्त प्रान्तपर गुजरेगी। अवधमें हिन्दू-मुसलमानोंमें तनाजा बढ़ रहा है। नमूनेके तौरपर मैं बाराबंकीके सम्बन्धमें नीचे कुछ तथ्य दे रहा हूँ। उस शहरके म्युनिसिपल बोर्डपर गहरे इलजाम लगाये गये हैं। उसके मुसलमान सदस्य जो पहले पक्के असहयोगी थे और अब भी हैं, वे इस्तीफा दे चुके हैं। इसलिए म्युनिसिपल बोर्डमें अब हिन्दू सदस्य ही रह गये हैं। उन इलजामोंके बारेमें विस्तारपूर्वक जाँच करनेका समय मुझे नहीं मिला, किन्तु एक बात लगभग सर्वविदित है और उससे मुसलमानोंके दिलमें कटुता पैदा हो रही है। इन हिन्दू सज्जनोंने कानून बना दिया है कि "बोर्डको जितनी दरख्वास्तें दी जायें, वे सब हिन्दी लिपिमें होनी चाहिए। किसी अन्य लिपिमें लिखी हुई दरख्वास्तें नहीं ली जायेंगी।

उक्त समाचार पाकर मुझे आश्चर्य और दुःख हुआ क्योंकि बाराबंकीपर, यदि मुझे ठीक याद है तो मौलाना शौकत अलीको गर्व था। वे बाराबंकीके हिन्दू और मुसलमान, दोनोंकी बड़ी तारीफ किया करते थे। मैं अब भी उम्मीद करता हूँ कि मेरे संवाददाताको गलत खबर लगी होगी। मैं विश्वास नहीं करता कि हिन्दू सदस्योंके बारेमें जो कहा गया है, उन्होंने वैसी कोई विचारहीन कार्रवाई की होगी। यदि वे हिन्दी- लिपिको मुसलमानोंसे स्वीकार करानेके लिए जबरदस्ती करेंगे तो वे हिन्दीको हानि ही पहुँचायेंगे। हिन्दुस्तानमें जहाँ कहीं हिन्दुस्तानी प्रान्तीय भाषा है वहाँ लोगोंको इस बातकी स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वे अपनी दरख्वास्तें देवनागरीमें लिखें या उर्दूमें। अन्तमें कौन-सी लिपि मंजूर होगी यह तो दोनों लिपियोंके आन्तरिक गुणोंपर ही अवलिम्बित है।

मैं यह नहीं समझ पाया कि मुसलमान सदस्योंने इस्तीफा क्यों दिया। मैं आशा करता हूँ कि बाराबंकीसे कोई सज्जन पूरी बात लिख भेजेंगे।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २६-६-१९२४