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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ले जाकर छोड़ दिये जाते हैं। वे वहाँसे जहाँ चाहें जा सकते हैं। अपने मुकामपर पहुँचने तक इन अकालियोंको अक्सर बड़ी तकलीफोंका सामना करना पड़ता है। यह क्रूर पद्धति घड़ीके काँटोंकी तरह नियमसे जारी है और सत्ताधारियोंपर उसका कुछ असर हो रहा हो सो नजर नहीं आता।

तो ये जत्थे ऐसा कष्ट किसलिए सह रहे हैं? सिर्फ इसलिए कि वे अखण्ड पाठ कर सकें, जिसमें नाभाके अधिकारियोंने उद्दण्डता के साथ दस्तन्दाजी की और जो पाठ अब भी रोका जा रहा है। अकालियोंने बार-बार यह बात कही है कि एक ओर जहाँ हमारा दावा है कि हमें महाराजा नाभाके मामलेकी निष्पक्ष और खुले तौरपर तहकीकात चाहने और करानेका हक है वहाँ दूसरी ओर हम अखण्ड पाठकी ओटमें उनके पक्षमें आन्दोलन नहीं करना चाहते। अखण्ड पाठकी मुमानियतका खुलासा इसके सिवा कुछ हो ही नहीं सकता कि इसके द्वारा अकालियोंका वह दुर्दमनीय तेज कुचल डाला जाये, जिसने अकाली लोगोंके सुधार-आन्दोलनका संगठन किया और जो इसे चला भी रहा है।

अकालियोंकी माँगें बिलकुल सीधी-सादी हैं। जहाँतक मैं जानता हूँ, वे इस प्रकार हैं:

(१) ऐतिहासिक गुरुद्वारोंपर सिखों द्वारा निर्वाचित केन्द्रीय समितिका कब्जा।

(२) हर सिखको किसी भी आकारकी कृपाण रखनेका अधिकार, और

(३) जैतोंमें अखण्ड पाठ करनेका अधिकार।

स्पष्ट ही ये माँगें ऐसी हैं जिनपर कोई ऐतराज नहीं किया जा सकता और जिनकी पूर्ति तत्काल कर देनी चाहिए। ऐसी कोई दूसरी कौम नहीं है जिसने अकालियोंकी तरह अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेके लिए इतनी वीरता, त्याग और कौशलका परिचय दिया हो। उनकी तरह किसी जातिने इतनी खूबीके साथ निष्क्रिय प्रतिरोधकी भावना कायम नहीं रखी। भारतीय सरकारको छोड़कर और कोई भी सरकार होती तो उसने उन माँगोंको कबका सही मान लिया होता, उनकी कुरबानियोंकी कद्र की होती और उनको दुश्मनोंके बदले अपना स्वेच्छा-प्रेरित सहायक बना लिया होता। परन्तु भारतीय सरकार यदि लोकमतकी परवाह करती होती तो वह इतने व्यापक विरोधके भड़कनेका अवसर ही क्यों देती।

हिन्दू, मुसलमान तथा दूसरी जातियोंका कर्त्तव्य इस मामलेमें स्पष्ट है। उन्हें इन सिख सुधारकोंको अपना नैतिक समर्थन देकर उनकी सहायता करनी चाहिए और सरकारको स्पष्ट रूपसे यह जता देना चाहिए कि पूर्वोक्त मामलेमें अकालियोंको सारे भारतका नैतिक समर्थन प्राप्त है। मैं जानता हूँ कि जो अविश्वास आज भारतीय वायुमण्डलमें व्याप्त है उससे अकाली भी अछूते नहीं बचे। हिन्दुओं और शायद मुसलमानोंको भी उनकी बातोंपर यकीन नहीं है। वे उनकी गतिविधिको सन्देहकी दृष्टिसे देखते हैं। कहा जाता है कि इसके पीछे इरादा कुछ और ही है; उनकी महत्वाकांक्षा सिख-राज्य स्थापित करनेकी है। अकालियोंने कहा है कि हमारी ऐसी नीयत कदापि नहीं है। सच पूछिए तो इस खण्डनकी जरूरत भी नहीं है और भविष्यमें