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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एकता तथा आपके प्रिय व्यक्तित्वकी खातिर आपकी सलाह माननेको तैयार हूँ--बशर्ते कि उससे इस्लामके प्रचार, मुसलमानोंके सुधार और संगठन और आर्यसमाजके प्रकट तथा अप्रकट प्रयत्नोंका असर दूर करनेके उस काममें, जिसे करनेके लिए मैं धर्मतः बाध्य हूँ, कोई बाधा न पड़े। मैंने आपत्तिजनक बताई जानेवाली बातोंमें से बहुत-सी बातें तो उस पुस्तकके बादके संस्करणोंमें से पहले ही निकाल दी थीं और अब आपकी इच्छाका खयाल रखते हुए मैं अगले संस्करणोंमें और भी अधिक सुधार करने को तैयार हूँ। आप जो कुछ सुझाव भेजना चाहें, पुस्तिकाका ताजा उर्दू संस्करण पढ़कर भेजें। सुझाव हिन्दी अनुवाद पढ़कर न भेजें, क्योंकि जो हिन्दी अनुवाद छापे गये हैं, वे सिर्फ भ्रम उत्पन्न करने और सहानुभूति प्राप्त करनेके लिए ही हैं।

तारके बाद ही इसी आशयका एक पत्र भी उन्होंने भेजा; और गत सप्ताह उन्होंने आकर मुझसे मिलने और खुद अपना मतलब समझानेकी इज्जत बख्शी। उन्होंने मुझसे कहा कि बच्चोंको भगा ले जाने वगैराके जितने इलजाम मुझपर लगाये जाते हैं वे सबके सब बिलकुल बेबुनियाद हैं और उस पुस्तकको प्रकाशित करनेमें मेरा उद्देश्य वह नहीं था, जो आपने समझा है। बदकिस्मतीसे यह भेंट उस वक्त हुई जबकि मैं मौन रखे हुए था; इसलिए मैं उनकी पुस्तिकाके बारेमें उनपर अपनी राय जाहिर न कर सका। ख्वाजा साहब इस बात के लिए बहुत उत्सुक थे कि मैं निजाम साहबकी रियासतकी हदके भीतर प्रचारके बारेमें उनके द्वारा दिया हुआ आश्वासन प्रकाशित कर दूँ। इसलिए मैंने उक्त तार और मुलाकातका सारांश खुशीसे प्रकाशित कर दिया है। फिर भी, यहाँ यह लिख देना आवश्यक है कि कथित प्रचारकी खबर मुझे विश्वसनीय व्यक्तियोंसे मिली थी। उस खबरकी ताईद करनेवाले पत्र भी मुझको मिले हैं और मेरे साथी मुझसे कहते हैं कि उस प्रकारकी शिकायतें देशी भाषाओंके अखबारोंमें अकसर छपा करती हैं। इसलिए निजाम साहबकी रियासतमें जो-कुछ हो रहा है, उसके बारेमें कोई प्रत्यक्ष जानकारी न होनेके कारण अपनी कोई राय कायम किये बिना दोनों तरफकी बातोंको प्रकाशित कर देनेके अलावा मैं और क्या कर सकता हूँ। इस मामलेमें निजाम साहबकी सरकार जो-कुछ कहना चाहे, उसको भी मैं खुशीसे अवश्य प्रकाशित कर दूँगा।

जहाँतक ख्वाजा साहबकी पुस्तिकाका सम्बन्ध है, यद्यपि यह एक प्रशंसनीय बात है कि वे उसमें ऐसे परिवर्तन करनेको तैयार हैं जो कि उनके धर्मसे संगत हों, फिर भी जिस बातकी जरूरत है वह कुछ विशेष और भिन्न प्रकारकी भी है। यद्यपि ख्वाजा साहबने उद्देश्यके कुत्सित होनेकी इस बातका प्रतिवाद किया है, फिर भी उस पुस्तिकासे, जिसको कि मैंने मूल उर्दूमें पढ़ा है, वह अर्थ भी निकाला जा सकता है, जो मैंने निकाला है। जिन मुसलमान मित्रोंको मैंने वह पुस्तिका दिखाई है, वे मेरे अर्थसे सहमत हैं। इसलिए यदि मैं सुझाव देनेका विचार भी करूँ तो यह काफी नहीं होगा कि मेरे सुझावके मुताबिक ख्वाजा साहब अपनी पुस्तिकामें परिवर्तन कर दें; जरूरी तो यह होगा कि वे खुद अपने विचारकी गलतीको देखें