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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खलल नहीं पहुँचता। क्या उन्हें सरकारी नियन्त्रणमें काम नहीं करना पड़ता? क्या वे शिक्षा प्रणाली या स्वास्थ्य-सफाईके क्षेत्रमें किसी प्रकारका कारगर परिवर्तन करा सकते हैं?

जहाँतक कांग्रेसके प्रस्तावोंका सम्बन्ध है, कांग्रेसके सदस्योंके लिए उन संस्थाओंमें जाने और पदाधिकारी बननेतक का मार्ग खुला हुआ है। सच तो यह है कि बादके एक प्रस्तावके अनुसार कांग्रेस जनोंसे इन संस्थाओंपर कब्जा करनेको भी कहा गया है। सरकारके नियन्त्रणमें होने के कारण सिद्धान्ततः तो ये संस्थाएँ सरकारी संस्थाओंकी श्रेणीमें ही आती हैं। किन्तु हमारे असहयोगका स्वरूप विशिष्ट है और वह केवल उन खास संस्थाओंसे ही सम्बन्धित है जिनके पीछे हमारा नैतिक बल तोड़नेका उद्देश्य ही प्रधान है और जो सरकारकी प्रतिष्ठाको कायम रखनेमें सबसे ज्यादा सहायक हैं। इसलिए जिन सरकारी संस्थाओंका कांग्रेसने स्पष्ट रूपसे बहिष्कार नहीं किया है, उनके सम्बन्धमें सबसे अच्छी योजना उनको इस कसौटीपर कसना ही है कि उनसे रचनात्मक कार्यक्रममें कितनी सहायता मिलती है। यदि उनसे उस कार्यक्रममें बाधा पहुँचती है तो मेरी स्पष्ट राय है कि कांग्रेसजनोंको वे संस्थाएँ छोड़ देनी चाहिएँ। मेरे पास कई स्थानोंसे ऐसे पत्र आये हैं जिनमें शिकायतकी गई है कि कांग्रेसजनोंके नगरपालिकाओं और जिला बोर्डोंमें प्रवेश करनेके कारण समस्त रचनात्मक कार्य ठप हो गये और कुछ स्थानोंमें तो कांग्रेसजन ही एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार बनकर खड़े हुए थे। इसमें शक नहीं कि जहाँ-कहीं ऐसी परिस्थिति हो, वहाँ कांग्रेसजनोंको अलग ही रहना चाहिए। कांग्रेसजनोंका आपसमें एक-दूसरेके खिलाफ उम्मीदवार होना तो मेरी समझमें ही नहीं आता। कांग्रेसजन एक अनुशासनमें बँधे हुए हैं और केवल वही कांग्रेसजन चुनावोंमें उम्मीदवार हो सकते हैं, जिन्हें सम्बन्धित कांग्रेस कमेटी उसके लिए चुने। जहाँतक (प्राथमिक) शिक्षा और स्वास्थ्य-सफाईपर नियन्त्रण कर सकनेका प्रश्न है, आम तौरसे यह कहा जा सकता है कि उन मामलोंमें नगर- पालिकाओंको बहुत-कुछ अधिकार है। बहरहाल, चूँकि नगरपालिकाएँ ज्यादातर चुने हुए प्रतिनिधियोंकी संस्थाएँ हैं, इसलिए उचित अवसर आनेपर उनके जरिये सविनय अवज्ञाकी काफी गुंजाइश है।

खतरनाक रिवाज

(१२ जूनके) 'हिन्दू' में मैंने अभी एक विवरण पढ़ा; उसे मेरे साथ हुई भेंटका विवरण बताया गया है। मुझे एक सज्जनके साथ बहुत देर तक बातचीत करनेकी बात याद पड़ती है; पर मुझे यह जरा भी खयाल नहीं था कि वे भेंटकर्ताके रूपमें आये हैं। मैंने समझा कि उनके मनमें कुछ वास्तविक शंकाएँ हैं और उनका वे समाधान कराना चाहते हैं। इसीलिए मैंने उनकी ओर बहुत ध्यान नहीं दिया और धीरजके साथ उनके तमाम सवालोंके जवाब दिये। चूँकि मेरे पास वक्त बहुत ही कम था, अतएव साधारणतया उन्हें भेंट देनेसे मैंने जरूर इनकार कर दिया होता और इतनी लम्बी भेंट तो कभी न देता। मेरे पास छिपानेकी कोई बात नहीं है। अगर लोगोंको मुझसे या मेरी निस्बत कोई बात मालूम हो जाये और वे उसे प्रकाशित करना चाहें