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भाषण: अ० भा० कां० कमेटीकी बैठकमें

मैं मूर्तिपूजक भी हूँ। यदि मुझे ऐसा जान पड़े कि नर्मदा नदीका एक पत्थर भी मुझे अपने इष्टदेवपर चित्त एकाग्र करनेमें मदद देगा तो मैं उसे अवश्य संजोकर रखूँगा और उसकी पूजा करूँगा। इस अर्थमें मैं हिन्दू हूँ।

मेरे एक अन्य मित्रका कहना है कि इस चरखेको इस तरह जपकी माला बना डालना ठीक नहीं है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरे लिए तो चरखा जप-माला ही बन गया है और मैं इस बातके लिए उत्सुक हूँ कि आप सबको भी मेरी इस चरखा सम्बन्धी श्रद्धाकी छूत लग जाये। यदि आप केवल मुझपर ही श्रद्धा करते हों और चरखेपर नहीं तो आप निश्चित जानें कि आप धुएँको मुट्ठीमें बाँधनेकी कोशिश कर रहे हैं। आप २,००० गज सूत मेरे सिरपर मारेंगे तो इससे क्या बनेगा? मेरा समाधान इतना करनेसे ही नहीं होगा। मुझे फाँसी पर लटकानेके लिए तो एक ही व्यक्ति द्वारा भेजा हुआ सूत पर्याप्त है। लेकिन मैं इस तरहकी मौत तो नहीं चाहता। मैं तो देशकी खातिर जीना और देशकी खातिर ही एक निष्कलंक मनुष्यके रूपमें---देशके सबसे अधिक निष्कलंक मनुष्यके रूपमें---मरना चाहता हूँ। मैं आपको ऐसी श्रद्धासे ओतप्रोत देखना चाहता हूँ; और यदि आपमें ऐसी श्रद्धा हो तभी आप मेरे पक्षमें मत दें। याद रखें कि आपको मेरी श्रद्धा नहीं वरन् स्वयं अपनी श्रद्धाको देखना है। आपमें श्रद्धाका होना जरूरी है।

अब मैं जो मेरे विरुद्ध मत देना चाहते हैं उनसे दो शब्द कहता हूँ। कुछ लोगोंने मुझपर आरोप लगाया है कि मैंने प्रस्तुत प्रस्तावोंको पेश करनेमें ब्रिटिश नौकरशाहीका ढंग अख्तियार किया है। हम इस नौकरशाहीसे इसलिए नाराज हैं कि हमने इसकी स्थापना नहीं की है और इसके कर्मचारियोंकी नियुक्ति भी हमने नहीं की है। लेकिन यदि हम अनुशासनकी खातिर अपने व्यवहारके बारेमें जान-बूझकर कोई नियम बनायें और उसे अपने लिए बन्धनकारी मानें तो हमें उसके प्रति रोष प्रदर्शित क्यों करना चाहिए? इसके अतिरिक्त मैं आज आपके सामने जो कुछ पेश कर रहा हूँ वह तो एक ऐसा सिद्धान्त है जो अनादिसे चला आ रहा है और वह यह है कि हम जो-कुछ कहें उसके अनुसार चलें। यदि हम दृढ़निश्चयी, साहसी और बलवान् राष्ट्रकी रचना करना चाहते हैं तो हमें स्वयं अपने ऊपर कड़ेसे-कड़े नियम लगाने होंगे। सैनिक शिविरमें जाकर देखिए। मैं तो सैनिक शिविरमें रहा भी हूँ और मैंने उसमें स्वयं काम भी किया है। उसमें आपको कई दिनोंतक फाका करना पड़ सकता है, जिसे मुँहसे भी न लगाया जा सकता हो, ऐसा पानी पीना पड़ सकता है और कभी-कभी अफसरोंकी ठोकरें भी खानी पड़ सकती हैं, और वह भी हँसते-हँसते। यह हालत तो उन शिविरोंकी है जिनमें पैसे लेकर दूसरोंके लिए लड़नेवाले सैनिक रहते हैं। हम तो स्वेच्छासे देशकी सेवा करनेके लिए निकले हुए स्वयंसेवक हैं और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। हमारे सम्बन्धमें सैनिक शिविरकी उपर्युक्त शर्तें कितनी कड़ाईसे लागू होनी चाहिए? आप अनुशासनके नियम लागू करनेपर नाराज कैसे हो सकते हैं? यदि आप अन्तःकरणसे इस तरहके अनुशासनके विरुद्ध हैं तो आप खुशी-खुशी इसमें से निकल जायें और बाहर निकलकर देशके लोकमतको अपनी ओर करनेके कार्यमें जुट जायें; इसीमें आपकी शोभा है। लेकिन