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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कुदृष्टिसे देखता है तो फिर क्या होगा? स्पष्ट दिखाई देता है कि समाज-सुधारोंके काममें हमारी मुख्य पूँजी प्रत्येक कार्यकर्त्ताके निजी जीवनकी पवित्रता है। यदि हमारे कार्यकर्त्ताओंके जीवनमें अपवित्रता आ जाये तो हमारा काम कागजकी नावकी भाँति स्वयं डूब जायेगा, हमें भी डुबो देगा और जनता भयभीत हो उठेगी। हमारे कुछ कार्यकर्त्ताओंमें ऐसी सड़ाँध पैदा हो गई है, मुझे इस आशयके पत्र मिले हैं। उनमें सत्य कितना है और झूठ कितना है, यह तो मैं नहीं जानता।

कच्छमें एक कार्यकर्त्ताने भारी भूल की थी। वह खादी प्रचारका काम करता था। उसकी अपवित्रताकी बात सबको मालूम हुई। इससे वहाँ के कार्यको बड़ी हानि पहुँची। उस कार्यकर्त्ताको वह स्थान छोड़कर जाना पड़ा। सुना है कि अब वह प्रायश्चित्त स्वरूप एकान्त सेवन कर रहा है। यदि उसे शुद्ध पश्चात्ताप हुआ होगा तो वह फिर कभी सेवा-क्षेत्रमें आ सकेगा, लेकिन उसकी अपवित्रतासे जो धक्का लगना था सो तो लग ही गया।

इसलिए प्रत्येक कार्यकर्त्ताके प्रति दीनभावसे मेरी यह विनती है कि आप सँभलकर चलें। आपका मन आपके वशमें न हो, आपकी दृष्टिमें मैल हो, श्रवणेन्द्रियमें मैल हो, आपके हाथमें मैल हो और आपके पाँव आपको अयोग्य स्थानपर ले जाते हों तो आप वहाँसे एकदम हट जायें, प्रायश्चित्त करें और सेवाकार्यको छोड़ दें। आप यह निश्चित मानें कि पवित्र बननेकी क्रियामें ही सच्ची सेवा है। आप बिना पवित्र हुए सार्वजनिक क्षेत्रमें बने रहकर दोषोंकी गठरी बड़ी न करें। निरन्तर याद रखें कि आप अग्निकुण्डमें बैठे हैं। यदि आप संयमरूपी अपने अभेद्य परिधानमें भी छिद्र हो जाने देंगे तो अग्नि उसी राह प्रविष्ट होकर आपको भस्म कर डालेगी। जिसका मन अपने वशमें नहीं है वह दूसरोंको अपने अनुशासनमें रखने का विचार ही कैसे कर सकता है?

५. कार्यकर्त्ताओंमें शौकीनी बढ़ गई है। उन्हें हर समय सवारी चाहिए। घोड़ागाड़ी मिले तो उनका काम बैलगाड़ीसे नहीं चल सकता और उनके लिए मोटरके आगे तो घोड़ागाड़ी और बैलगाड़ी दोनों ही बेकार हैं।

मैं अब स्वयं अपंग हो गया हूँ इसलिए मेरी कलममें सवारीके बारेमें टीका करनेकी जो शक्ति पहले थी वह अब नहीं रही है। तिसपर भी मैं खेड़ाके संघर्षके पुराने पवित्र दिनोंका स्मरण दिलाते हुए कहना चाहता हूँ कि आग्रह तो उलटा रखना चाहिए। अपने दो पाँवों-जैसे घोड़े हैं कहाँ? जबतक पाँव चलते हैं तबतक सवारीका विचार ही नहीं करना चाहिए और बैलगाड़ी हो तो घोड़ागाड़ीका विचार न करें तथा घोड़ागाड़ी हो तो मोटरकी बात न सोचें। मोटरमें जाने योग्य जल्दीका प्रसंग हो तो हमारा प्रमुख स्वयं कहेगा और तब मोटरका उपयोग अवश्य किया जा सकता है। लेकिन स्वेच्छासे तो 'पैरगाड़ी' को ही मान दिया जाना चाहिए। हमें हजारों कार्यकर्त्ताओंकी जरूरत है। अगर हजारों कार्यकर्ताओंके लिए घोड़ागाड़ीकी व्यवस्था करनी पड़े 'तब तो हमारा संघ द्वारका कदापि नहीं पहुँचेगा'।[१]

 
  1. गुजराती कहावत।