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डाका पड़नेपर

जरूरत भी नहीं है। यदि यह परम्परा आरम्भ हो जायेगी तो वह आगे चलती रह सकती है। आधुनिक कालके सुधारकोंने यह भी किया है। सहजानन्द, चैतन्य, और रामकृष्ण आदिने इस दिशामें बहुत-कुछ किया था। वह सुधार स्थायी नहीं हो सका, अथवा उससे लूटमार बन्द नहीं हो पाई---ऐसा कहकर अथवा इस मान्यताके आधारपर कोई उनके प्रयत्नोंकी अवगणना न करे। ऐसे सुधार व्यापक नहीं होते, क्योंकि वे प्रायः एकपक्षीय होते हैं।

हम ऐसा मानते हैं कि धनिक वर्गमें ऐसे सुधार करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि लूटमारका धन्धा धनिक वर्गकी लूटका ही प्रतिबिम्ब है। धनिक वर्गकी सूक्ष्म लूट-खसोट ही डाकुओंमें स्थूल रूप धारण करती है। इसलिए सुधारकको धनिक वर्गकी सूक्ष्म लूट और गरीबोंकी स्थूल लूटमार दोनोंको मेटनेका काम हाथमें लेना होगा; तभी बात बनेगी। यह कार्य आचार्यों, फकीरों और संन्यासियों इत्यादिका है। वे लोग ही समाजकी नीतिके सच्चे रक्षक और चौकीदार हो सकते हैं और इसी कारण लूटमारको दूर करनेका कार्य भी उन्हींका है।

यह काम चलता रहेगा और डाके तो पड़ते रहेंगे। ऐसे कामोंमें "हथेलीपर सरसों" नहीं जम सकती। ये तो धीरे-धीरे ही होते हैं। इस बीच धनिक वर्ग अपनी सम्पत्तिकी रक्षा कैसे करें?

पुलिसकी मददसे एक हदतक रक्षा हो सकती है। सब खामियोंके लिए, सब दोषोंके लिए सरकार उत्तरदायी है--ऐसा कहनेका रिवाज पड़ गया है। यह अच्छा है और बहुत हदतक सही भी है। आज तो विदेशी राज्य है, इसलिए उसे दोष देना सुगम है। कल जब स्वराज्य होगा तब भी हम अपूर्ण रहेंगे और स्वराज्य सर कारको गालियाँ देंगे। लेकिन तब सरकार हम स्वयं होंगे इसलिए वर्तमान सरकारपर दोषारोपण करनेके स्वभावका त्याग करना भी स्वराज्यका शिक्षण कहा जायेगा। लूटपाटका सारा दोष सरकारके मत्थे मढ़ना अपनी दुर्बलताको स्वीकार करना है। जंगलोंमें रहनेवाले लोगोंकी रक्षाके लिए सरकार कहाँतक पुलिस रख सकती है। जिन लोगोंमें आत्मरक्षा करनेकी सामर्थ्य ही नहीं, वे स्वराज्यका उपभोग कैसे कर सकते हैं? अपंग लोगोंके भाग्यमें गुलामी लाजिमी है। इसलिए लोगोंको सभी स्थानोंपर आत्मरक्षाकी तैयारी कर रखनी चाहिए। इस दृष्टिसे विचार करें तो घाटकोपर-जैसे उपनगरोंके निवासियोंको और अन्य सभी जगहोंके भारतीयोंको अपना बचाव करना सीख लेना चाहिए। घर-घरके नवयुवकोंको आत्मरक्षाकी तालीम लेना जरूरी है। भाड़ेके लोगोंसे यह काम कराया जा सकता है; लेकिन उसमें जोखिम बहुत है। यदि मध्यम वर्गके लोग अपनी रक्षा अपने-आप करनेके बजाय पैसे देकर अन्य लोगोंसे करायेंगे तो वे इस तरह पैसे देकर भी केवल अपने सरदार ही तैयार करेंगे। जिन्हें परिग्रह करना है उन्हें अपना बचाव करनेके लिए तैयार रहना ही होगा।

यहाँतक तो मेरी टीका हिन्दू-मुसलमान सभीपर लागू होती है। हिन्दुओंके मार्ग में वर्णाश्रम-प्रथासे उत्पन्न कठिनाइयाँ बाधक होती हैं, यह विचार भ्रामक है। मनुष्य मात्रमें ये चारों गुण होने चाहिए---ज्ञान, शौर्य, वाणिज्य और सेवाभाव; वर्ण-विशेषमें उसका विशेष गुण प्रधान रहे, वर्णाश्रमका केवल इतना ही अर्थ हो