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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक वर्णका धन्धा---आजीविकाका साधन---उसका विशेष गुण होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि ब्राह्मणको ज्ञान देकर, क्षत्रियको रक्षा करके, वैश्यको व्यापार करके तथा शूद्रको सेवा करके मुट्ठी-भर बाजरा लेनेका अधिकार है। लेकिन जो मनुष्य संकट आनेपर अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह अधूरा है और समाजपर बोझ है। अपनी रक्षा आत्मबल अथवा शरीरबल द्वारा की जा सकती है। जिसने आत्मबलका विकास नहीं किया वह अपनी तथा अपने सगे-सम्बन्धियोंकी रक्षा शरीरबलसे करनेके लिए बँधा हुआ है। दोनोंको अपनी जान देनेकी तालीम हासिल करनी है। आत्मबलसे युक्त मनुष्य शरीरको तुच्छ जानकर डाकुओंको दण्ड दिये बिना मरेगा जब कि शरीरबलसे युक्त मनुष्य उनको मारता हुआ मरेगा। सब आत्मबलका विकास करनेके लिए तैयार नहीं हो सकते। फिर द्रव्यार्थी और आत्मार्थी ये दो परस्पर विरोधी अर्थवाले भी हैं। जबतक द्रव्यार्थी द्रव्यकी लोलुपता नहीं छोड़ता तबतक वह पूरा आत्मार्थी नहीं बन सकता। लेकिन यदि आज दोनोंमें से एक भी भय देखकर भाग निकले तो वह कापुरुष ठहरता है। इसलिए दोनोंको ही अपनी-अपनी सामर्थ्यके अनुसार आत्मरक्षाकी शक्तिका विकास करना है। घाटकोपर-जैसे उपनगरोंमें रहनेवाले लोगोंका स्पष्ट धर्म है कि वे स्वयं अर्थात् प्रत्येक परिवारमेंसे कुछ लोग डाकुओंका सामना करनेके लिए प्रशिक्षण प्राप्त करें।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २९-६-१९२४

१६६. मैं हारा

कभी-कभी कुछ सज्जन मेरे पास आकर मुझसे शास्त्रार्थ करना चाहते हैं। एक स्वामीजीने मेरे पास आकर इस आशयकी बातें की: "दूसरे लोग अस्पृश्यताके बारेमें चाहे कुछ कहते रहें, परन्तु आपको तो इसका नामतक मुँहसे न निकालना चाहिए, क्योंकि आप धर्मका नाम लेकर बातें करते हैं। इससे लोगोंको धोखा होता है। अगर धर्म-शास्त्रोंमें अस्पृश्यताको पाप माना गया हो तो, या तो उन वचनोंको पेश करके आप साबित कर दीजिए, नहीं तो मैं वेदोंके प्रमाणोंसे यह दिखला सकता हूँ कि उनमें अस्पृश्यताका पूर्ण समर्थन है। यदि अस्पृश्यता नष्ट हो जायेगी तो सनातन धर्मका लोप हो जायेगा।"

मैं उनकी बात सुनकर परेशान हो गया। मैंने तो सिर्फ यही उत्तर दिया, "मैं तो वाद-विवाद करनेमें हमेशा अपनेको हारा हुआ समझता हूँ। मैं आपसे शास्त्रार्थं नहीं कर सकता। मैं पहले से ही यह बात कबूल कर लेता हूँ कि मैं आपसे बहसमें हार जाऊँगा किन्तु मैं फिर भी यह जरूर कहता रहूँगा कि हिन्दू धर्ममें अस्पृश्यताका होना महापाप है। परन्तु मैं इससे स्वामीजीको सन्तोष नहीं दे सका। मैंने अपने मनमें पूरा सन्तोष अवश्य माना। मुझे लगा कि मैं तो यह मुख्तसिर जवाब देकर बच गया हूँ। जब स्वामीजी आये तब मैं 'यं० इं०' और 'नवजीवन' के पाठकोंकी