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मैं हारा

मनस्तुष्टिके नित्यकर्ममें लीन था। मैं बातचीतमें एक क्षण भी गँवानेके लिए तैयार नहीं था। इसलिए मुझे तो 'नन्ना' रामबाण दवा मालूम हुई। हमारे बड़े-बूढ़ोंने हमें अनुभवके कुछ सूत्र बता रखे हैं। मेरे लिए इतना पर्याप्त था। "एक नन्ना छत्तीस रोग हरे" इस कहावतका लाभ मुझे बहुत बार मिला है। मैंने तो यह समझा है कि एक नन्ना छत्तीस ही नहीं बल्कि छत्तीस सौ रोगोंकी दवा है।

शास्त्रार्थका पेशा वकीलके पेशेकी तरह है। शास्त्रार्थ स्याहका सफेद और सफेदका स्याह करके दिखा सकता है। इस बातका अनुभव किसे नहीं है? बहुतसे वेद-वादरत मनुष्य वेदसे अनेक बातोंके प्रमाण प्रस्तुत करते हैं और अन्य लोग उन्हीं वेदोंसे उन्हीं बातोंके बारेमें विरुद्ध बात उतने ही जोरसे सिद्ध कर देते हैं।

मैं अपने जैसे प्राकृत मनुष्योंको एक ऐसा आसान तरीका बताता हूँ जिसको मैंने काममें लाकर देख लिया है। मैंने हरएक धर्मका विचार करके उसका महत्तम समापवर्तक निकाल रखा है। कुछ सिद्धान्त अटलसे मालूम होते हैं। वे अनुभवसे भी गलत सिद्ध नहीं हुए हैं। भक्त तुलसीदासने दोहेके एक पदमें कहा है 'दया धर्मका मूल है।' 'सत्यके सिवा दूसरा धर्म ही नहीं हैं', यह सनातन वचन है। किसी भी धर्ममें इन सूत्रोंका खण्डन नहीं किया गया। ऐसे हरएक वचनको, जिसके लिए धर्म-शास्त्रका वचन होनेका दावा किया गया हो, सत्यकी निहाईपर दयारूपी हथोड़ेसे पीटकर देखना चाहिए। अगर वह पक्का मालूम हो और टूट न जाये तो उसे ठीक समझना चाहिए अन्यथा हजारों शास्त्रार्थियोंके रहते हुए भी 'नेति' 'नेति' ही कहना चाहिए। अखाकी अनुभव-वाणीमें शास्त्रार्थ एक "अन्धा कुँआ" है। जो उसमें गिरता है वह गोते ही खाता रहता है। आत्मा एक है। शरीर मात्रमें उसीका निवास है। ऐसी दशामें अस्पृश्य कौन हो सकता है?

यहाँ हमें अस्पृश्यताका अर्थ भी समझ लेना चाहिए। रजस्वला स्त्री अस्पृश्य है। श्मशानसे लौटा हुआ मनुष्य अस्पृश्य है। मैला उठानेपर जबतक स्वच्छ न हो तबतक हर आदमी अस्पृश्य है। इस अस्पृश्यताको तो हम अपने माता-पिताके प्रति भी पालते हैं। परन्तु यदि रजस्वला माता बीमार हो और उस समय उसका लड़का अस्पृश्यताका विचार करके उसकी सेवा न करे तो वह नरकवासी होगा। सम्भव है उस सेवासे वह थोड़ी देरके लिए अस्पृश्य हो जाये। मैला उठानेवाले सब अन्त्यज हैं। वे मैला उठाकर न नहायें और हम उनको छूकर नहाना चाहें तो नहा लें। परन्तु ऐसे मामूली और व्यावहारिक विचारसे अन्त्यजोंकी पृथक जाति बना देना, उन्हें गाँवके एक अलग मुहल्लेमें बसा देना, उनको जानवरोंसे भी अधिक त्याज्य मानना, वे चाहे मरें या जियें उनका खयालतक न करना, उनको जूठा और सड़ा-गला खाना देना, उनके बाल-बच्चोंको न पढ़ाना, वे बीमार हो जायें तो उनको दवा-दारूकी मदद न देना, उन्हें मन्दिरोंमें न पैठने देना और कुँओंपर पानी न भरने देना---यह धर्म नहीं, अधर्म है। हम इसे हिन्दू धर्मका अंग मानकर हिन्दू धर्मकी जड़ उखाड़नेकी तैयारी कर रहे हैं।