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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कारण किसीको पस्तहिम्मत होनेकी जरूरत नहीं है। अन्तस्ताप ही वस्तुतः भयंकर बीमारी है। एपेन्डिक्स अर्थात् अनावश्यक अवयवकी इस सूजनको एपेन्डिसाइटिस कहते हैं। मैं इसे भयंकर बीमारी नहीं मानता। बल्कि मैं तो बुरा बोलने और बुरा काम करने को ही भयंकर बीमारी मानता हूँ। ईश्वरीय नियम इतने सूक्ष्म हैं और उनका पालन करना इतना कठिन है कि हमसे अनजानमें भी भूलें हो जाती हैं। उन भूलोंसे बचनेमें ही आत्माका आरोग्य अथवा कल्याण निहित है। यदि इस तरह बचकर चलनेवाले मनुष्यको कोई शारीरिक व्याधि हो जाये तो उससे निराश होनेका कोई कारण नहीं है।

अब मैं अपनी मतिके अनुसार खुदाके गुनाहका रूप समझाता हूँ। मैं पहले भोजनके विषयको लेता हूँ। मैं मिताहारके महत्वको तो बहुत अच्छी तरह समझता हूँ। मैंने मिताहारके नियमका यथाशक्ति पालन भी किया है। लेकिन जिसका बहुत ज्यादा समय विचारमें जाता हो और जिसे हृदयकी गहराईमें पैठकर नित्य नई खोज करनी हो, उसे अल्पाहारी होना ही चाहिए। उसे शरीरकी क्षीणतासे नहीं डरना चाहिए। मैं इस अर्थमें अल्पाहारी नहीं था, कभी रहा नहीं और आज भी नहीं हूँ। मैं शरीरकी क्षीणताके सम्बन्धमें उदासीन नहीं हुआ हूँ। मैं अपना स्वास्थ्य बनाये रखना चाहता हूँ और सोचना तथा विचारना भी चाहता हूँ। मैं इसी द्वन्द्वमें पड़ा हूँ। मेरे प्रयोग जारी हैं; लेकिन अभी मुझे अपने अल्पाहारका माप नहीं मिला है। यह बात जादूसे सिद्ध नहीं हो सकती। स्वाभाविक रूपसे किये गये परिवर्तन ही टिके रह सकते हैं। इसके अतिरिक्त अल्पाहारी होनेके बावजूद मनुष्यको रसोंपर विजय प्राप्त करनी पड़ती है। मैं अस्वाद-व्रतके पालनका आग्रह रखता हूँ तथापि मैं अभी इसकी सिद्धिसे बहुत दूर हूँ। मैंने अपने आहारमें केवल बकरीका दूध रखा है। किन्तु मैंने इसमें से भी अपने मनको स्वाद लेते हुए पकड़ा है। जबतक वह स्वाद बना हुआ है तबतक मुझे बीमारीका भय बना है । स्वादको न जीतना ही " खुदाका गुनाह" है।

लेकिन मैं अपने विकारोंपर भी काबू कहाँ पा सका हूँ? जिन्होंने मेरे जेलके अनुभव पढ़े हैं वे जानते होंगे कि मेरी किस्मतमें जेलमें भी लड़ाइयाँ ही लिखी थीं। मैंने अपने पूरे अनुभव तो दिये ही नहीं हैं। मैंने घरेलू लड़ाइयोंकी ओर भी इशारा तक नहीं किया है। जो लोग धार्मिक दृष्टिसे इन लड़ाइयोंको लड़ते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि इनमें कितना सन्ताप सहन करना पड़ता है। यदि हम इन लड़ाइयोंको राग-द्वेषसे मुक्त होकर लड़ सकें तो हमें शारीरिक व्याधियाँ कदापि न सतायें। मैं तो क्रोधके वशमें हूँ। मुझे अच्छा, अच्छा लगता है और बुरा, बुरा लगता है। मैं इसे प्रकट नहीं होने देता तो इससे क्या होता? किन्तु इसे प्रकट न होने देनेके लिए कितना प्रयत्न करना पड़ता है सो तो मैं ही जानता हूँ। राग-द्वेषको वशमें करनेमें जितना प्रयत्न करना पड़ता है, बिजली-जैसा बड़ा आविष्कार करनेमें उसका सौवाँ हिस्सा भी नहीं करना पड़ता और इस विजयको प्राप्त करनेके बाद जो सुख मिलता है, वह न्यूटनको गुरुत्वाकर्षणकी शोध करनेसे जितना आनन्द मिला होगा, उसकी अपेक्षा कहीं अधिक होता है। जेलमें क्रोध करनेके अनेक प्रसंग आते थे। इन सभी अवसरोंपर