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खुदाका गुनाह या कुदरतका?

मनको वशमें रखना कठिन होता था। जेलके वातावरणके विरुद्ध लड़ाई करनेमें बहुत प्रयत्न करनेकी जरूरत पड़ती है। ऐसे समय क्रोधादिसे उत्पन्न विकार शरीरपर अपना असर डाले बिना नहीं रहते। और आखिर में स्वप्न-विकारके बारेमें तो मैं लिख ही चुका हूँ। जबतक विचार सम्बन्धी विकार जीत नहीं लिये जाते तबतक शरीरको भयंकर व्याधियोंका भय बना रहेगा।

सच बात तो यह है कि हमने अभी मनोविज्ञानमें चंचु प्रवेश ही किया है। वैद्यों, हकीमों और डाक्टरोंने शरीरको तो बहुत चीथा है। किन्तु उन्होंने मनका विश्लेषण ही नहीं किया; उन्होंने स्वयं विकारवश होकर केवल शरीर सम्बन्धी परिवर्तनोंको देखकर व्याधियोंके निवारणके उपाय खोजने में अपना कालक्षेप किया है।

शरीरपर मनोविकारोंका असर कितना भयंकर होता है, उन्होंने इस बातकी सूक्ष्म जाँच ही नहीं की है। बाह्य औषधिकी सहायताके बिना इन्द्रियदमन द्वारा किस तरह व्याधियोंसे बचा जा सकता है, इसकी खोज तो अभी होनी ही है। यह भी कहा जा सकता है कि ऐसी खोजें हुई तो थीं; लेकिन हमने उन्हें भुला दिया है। यदि आधुनिक हकीम और वैद्य आत्माको ध्यानमें रखकर व्याधियोंपर विचार करें तो वे बाह्योपचारके बजाय अवश्य ही आन्तरिक उपचारका पुनरुद्धार करेंगे। वे अनेक प्रकारकी सीरम---रक्तोदकी पिचकारियाँ देकर शरीरको दूषित करनेके बजाय आरोग्य-पालन करनेके प्राकृतिक अथवा ईश्वरीय नियमोंका निरूपण कर सकते हैं। मैंने कुछ इसी विचारको ध्यानमें रखकर आरोग्यकी पुस्तक लिखी थी।[१] मुझे तो उसी दिशामें बहुत सारे प्रयोग करने थे। मैं इन प्रयोगोंको करते-करते बीमार पड़ गया। मैं इससे आत्म-विश्वास खो बैठा हूँ और मुझपर सत्याग्रहकी लड़ाइयोंका उत्तरदायित्व आ पड़ा है, यह मेरे रास्तेमें दूसरी रुकावट है। अगर मुझे इससे मुक्ति मिले तो मैं अपने प्रयासोंको फिर आरम्भ करूँ।

इस बीच अब पाठक यह अच्छी तरह समझ लें कि मुझे तो जो-जो व्याधियाँ हुई हैं उनका मुख्य कारण मैं स्वयं ही हूँ---ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। यदि मैं अब भी अपने विचारोंमें निर्विकार हो सकूँ तो मेरा शरीर इस जन्ममें ही नीरोगी हो जाये, क्षीण होनेके बावजूद वज्रवत् बन जाये और छूत आदिके भयसे मुक्त हो जाये।

इस लेखसे पाठकोंको यही सार निकालना चाहिए कि वे मनोविकारोंको जीतकर ही आरोग्यवान हो सकते हैं। यदि वे विकारोंको जीतनेका प्रयत्न करते हुए बीमार पड़ जायें तो वे इससे घबरायें नहीं, अपितु अपना प्रयत्न जारी रखें। वे इष्ट फलकी प्राप्ति न होनेपर हताश न हों, वरन् श्रद्धा रखकर निरन्तर प्रयत्नशील बने रहें। शरीर तो लाड़-दुलारके बावजूद एक-न-एक दिन नष्ट होगा ही। वह कब नष्ट होगा हमें इसकी कोई खबर नहीं है। अतः काँचकी चूड़ियोंसे भी नाजुक इस वस्तुका अति मोह न रखा जाये और अपने मनको छलनेकी अपेक्षा हम यह मानें

 
  1. गुजरातीमें इस पुस्तकके अध्याय सबसे पहले १९१३ में 'इंडियन ओपिनियन' में लेखमालाके रूपमें प्रकाशित हुए थे। देखिए "आरोग्यके सम्बन्धमें सामान्य ज्ञान", खण्ड ११ और १२।