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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि उसे जो थोड़ी-बहुत व्याधियाँ सताती हैं उसका कारण ईश्वरके सामान्य नियमोंका उल्लंघन है।

ये नियम अत्यन्त कठिन हैं, हमें यह माननेकी झूठी आदत पड़ गई है। सभी कहते हैं, इसलिए यही ठीक है, ऐसा हम आलस्यवश मान लेते हैं। हम उत्साहपूर्वक प्रयत्न करनेसे यह अनुभव कर सकते हैं कि विकारोंके अधीन होना मनुष्यका स्वभाव नहीं, अपितु उनपर विजय प्राप्त करना उसका स्वभाव है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २९-६-१९२४

१६९. टिप्पणियाँ

खादी बनाम मिलका कपड़ा

धारवाड़ जिलेसे एक भाई लिखते हैं:[१]

मेरे पास ऐसे पत्र कई बार आते हैं। इनसे पता चलता है कि खादी भले ही टिकाऊ न हो, वह प्रति गज मिलके कपड़ेसे भले ही महँगी हो और सूत कच्चा होनेसे उसकी बनी खादी भले ही तुरन्त फट जाये, लेकिन यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि खादीसे जो सादगी आती है, इससे वह सस्ती पड़ती है। खादीके कपड़े चार या पाँच पहननेकी इच्छा ही नहीं होती। मलमलके वस्त्र-मात्रसे सन्तोष नहीं होता। ऐसा कहनेका अभिप्राय यह नहीं है कि खादीका जो प्रभाव उपर्युक्त सज्जनपर हुआ है, वही प्रभाव सब लोगोंपर होता है अथवा इस प्रभावका कारण स्वतः खादीमें निहित है। इसका कारण खादीके आसपासका वातावरण और उसमें निहित भावना है। खादीसे सैकड़ों लोगोंके जीवनमें महान परिवर्तन हुआ है। यह तो ऐसी बात है, जिसे कोई भी मनुष्य थोड़ा ध्यान दे तो देख सकता है।

मृतक भोज अथवा कारज

इन्हीं सज्जनने अपने ऊपर आये हुए एक धर्म-संकटकी बात भी लिखी है। उनकी जाति-बिरादरीके लोग उनकी माताका स्वर्गवास होनेपर उनसे जाति-भोज देनेका आग्रह कर रहे हैं। उन्हें स्वयं इसपर कोई श्रद्धा नहीं है। प्रत्युत उनकी मान्यता है कि ऐसे भोजोंसे नुकसान होता है। दूसरी ओर यदि वें कारज नहीं करते तो जाति-बिरादरीके लोगोंका मन दुःखता है। ऐसे संकटके समय क्या करना चाहिए, यह सवाल है। यदि समाजकी पुरानी कुरीतियाँ दूर करनी हों तो इस मामलेमें पहल करनेवाले लोगोंके सामने ऐसे धर्म-संकट आयेंगे ही। ऐसे समयमें विनय और दृढ़ता, ये दो गुण ही काम देते हैं। उन्हें विरोधियोंके विरोधको विनयपूर्वक सहन करना

 
  1. यहाँ पत्रका अनुवाद नहीं दिया गया है। पत्र लेखकने पत्रमें लिखा था कि उन्हें विदेशी कपड़ेकी बनिस्बत खादी बहुत सस्ती जान पड़ी है; और जबसे उन्होंने उसे पहनना शुरू किया है तबसे उन्हें सामान्य कार्य करनेमें कोई अप्रतिष्ठा अनुभव नहीं होती।