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पराजित और नतमस्तक

मेरे चारों प्रस्ताव बहुत थोड़े बहुमतसे पास हुए परन्तु ऐसे पास होनेको अल्पमत ही मानना चाहिए।[१]“दोनों दलोंमें छोग प्राय: बराबर-बराबर ही थे। गोपीनाथ साहा वाले प्रस्तावते इस परिस्थितिकों और भी साफ कर दिया। उसपर हुए भाषण, उसका नतीजा और उसके बाद जो दृश्य मेंने देखा, उस सबने मेरी आँखें खोल दी । जो मतदान हुआ उसे में निःसंदेह श्री दासकी ही विजय मानता हूँ, हालाँकि ऊपरसे देखनेपर ८ मतोंसे उनकी शिकस्त हो गई थी। यह बात कि १४८ मतोंमें से उन्हें अपने हकमें ७० मत मिल गये, मेरे लिए गहरा महत्व रखती है। उसने अँधेरेको चीर दिया। लेकिन धुंधलापन तो अभीतक बना ही हुआ है।

मतदानका नतीजा घोषिता होनें तक में उस साडे मामलेको मजेंमें ले रहा था–हालाँकि यह खयाल भी मुझे बराबर था कि यह मामला गम्भीर होनेके साथ- साथ एक बड़ा मामला भी है। अब में देखता हूँ कि मेरा यह रुख सतही था। उसमें एक एसी व्यथा छिपी थी जो मेरा हृदय अन्दर ही अच्दर विदीर्ण कर रही थी।

नतीजा प्रकट हो जानेपर मुख्य पात्र रंगमंचसे चले गये और सदस्योंने शिष्टता और मर्यादाका परित्याग कर दिया। अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव भी इस तरह पास होते रूगे मानों उनसे किसीका कुछ वास्ता ही न था। इन प्रस्तावोंके बीच-बीचमें व्यंग्य विनोदके फुहारे भी छूट रहे थे। हर कोई औचित्य-प्रदन (पाइंट ऑफ आडंर) और सूचनार्थ-प्रहनन (पाइंट ऑफ इतफरमेशन) की आड़े लेकर उठ खड़ा होता और बोलने रूगता। कोई भी सभापति ऐसी बैठक चलानेकी इस कठिन परीक्षामें अपना घैर्य खोये बिना नहीं रह सकता था। पर मौलाना मुहम्मद अली इस परीक्षामें से बेदाग निकल आये। उन्होंने काफी अच्छी तरहसे अपनेको सँभालकर रखा। “पाइंट ऑफ इनफरमेशन” की अनुमति देनेसे मौलाना मुहम्मद अली इत्तकार कर देते थे और यह ठीक भी था। हाँ, मुझे यह बात जरूर कबूल करनी चाहिए कि ये कीति लोलुप्त सज्जन सभापतिके आनत-फानन दिये गये आदेशोंको भी खुशी-खुशी मंजूर कर लेते थे। किच्तु इससे यह नतीजा न निकाल के कि तब समितिकी इस कारंवाईके दौरान थोड़ी बहुत अनुशासनहीनता तो अवश्य आ गई होगी। मेते ऐसी बहुत बैठक नहीं देखी है जहाँ चर्चार्मे इतने कम व्यक्तिगत आशक्षेप और इतनी कम कटुतापूर्ण उक्तियोंका प्रयोग हुआ हो जितना कि इस बैठकर्मों हुआ, हालाँकि छोंग उत्तेजित थे और मतभेद तीज और गहरे थे। मेने ऐसी सभाएं अवश्य देखी हैँ जहाँ ऐसी ही परिस्थितिमें सभापतिको व्यवस्था कायम रखता मुश्किक हो गया है। यहाँ तो सभापतिके आदेशोंका खुशी-खुशी पालन होता रहा।

अलबत्ता गोपीताथ साहाके प्रस्तावके बाद सभासे मर्यादाका लोप ही हो गया। सुझे सभाके इस माहौरूमें अपना आखिरी प्रस्ताव पेश करता था। कार्रवाईके आगे बढ़नेके साथ-साथ में अधिकाधिक गम्भीर होता चला गया होऊँगा। कई बार तो ऐसा लगा कि बेचेन बना देनेवाले इस वातावरणकों छोड़कर में चल दूँ। उस सभाके सामने अपना प्रस्ताव पेश करनेकी लाचारीके विचारसे मुझे विकलता हो रही थी। में तो

  1. देखिए“अग्नि-परीक्षा” १९-६-१९२४।