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पराजित और नतमस्तक

ऐसे ही स्त्री-पुरुषोंको स्थान देने और उनका काम सुचारु रूपसे चलाने के लिए अभी कुछ समय लगेगा। इस कठिन वस्तुस्थितिको समझकर मैं विमुक्ति सम्बन्धी उस प्रस्तावका सारा कलंक अपने सिर लेनेके लिए तैयार हुआ था । मैंने अभी उसका पढ़ना खत्म किया ही था कि आन्ध्रके वीर हरिसर्वोत्तम राव साहब उठ खड़े हुए और उन्होंने उसका विरोध करते हुए एक तर्कसंगत और प्रभावशाली वक्तृता दे डाली। उन्होंने कहा कि मुझे आपके प्रस्तावका विरोध करनेका अपना कर्त्तव्य बड़े दुःखके साथ पालन करना पड़ रहा है। मैंने कहा कि दुःख तो मुझे होना चाहिए कि मुझे ऐसा प्रस्ताव उपस्थित करना पड़ता है, जिसकी सफाई में नहीं दे सकता। ऐसे प्रस्तावका विरोध करने और कांग्रेसको हर हालतमें ऐसे लोगोंसे अलग रखनेमें आपको तो खुशी होनी चाहिए। मैंने इस विरोधको पसन्द किया और मतदानकी राह देखने लगा । लेकिन इनके बाद ही स्वामी गोविन्दानन्द खड़े हुए और उन्होंने यह जाब्तेका एतराज खड़ा किया कि ऐसा कोई प्रस्ताव उसी सभामें पेश नहीं किया जा सकता जिससे उसके पहले पास किये गये किसी प्रस्तावपर आँच आती हो । परन्तु सभापति महाशयने इस आपत्तिको नामंजूर कर दिया, जो उचित ही था। अगर और किसी वजह से नहीं तो सिर्फ इसी कारणसे कि इसके एक दिन पहले ही सबसे पहले प्रस्तावको बहुमतसे स्वीकृत करनेके बाद उसमें संशोधन कर दिया गया था । परन्तु डाक्टर चोइथराम अनजाने में ही मेरा धैर्य बिलकुल खत्म कर देनेके निमित्त बन गये। मैं समझता हूँ कि वे एक जिम्मेदार आदमी है। उन्होंने लम्बे अर्सेतक देशकी अनवरत सेवा की है । उन्होंने देशके लिए फकीरी अख्तियार की है। पहले यही कांग्रेस इसी विषयके सम्बन्धमें कितने ही प्रस्ताव स्वीकार कर चुकी है जो बहिष्कारके प्रस्तावको थोड़ा नरम बनाते थे । फिर ऐसा होते हुए भी इस विषयमें डा० चोइथरामने संवैधानिक आपत्ति उठाई, यह देखकर मैं दंग रह गया । वे बिना विचारे ही पूछ बैठे कि क्या यह प्रस्ताव कांग्रेसके बहिष्कार सम्बन्धी प्रस्तावको भंग नहीं करता है ? मौलाना मुहम्मद अलीने मुझसे पूछा : क्या यह ऐतराज ठीक नहीं है ? मैंने कहा बेशक ठीक है । तब वे लाचार हो मेरे प्रस्तावको असंवैधानिक करार देनेपर विवश हो गये। मैं बिल्कुल हताश हो गया । किसीके भाषण में या व्यवहारमें कोई बात अनुचित हो सो नहीं । सबके भाषण संक्षिप्त थे । उनमें विनयकी भी कमी नहीं थी और बड़ी बात तो यह कि जाहिरमें उनकी बात ठीक लगती भी थी। फिर भी यह सब कोरा स्वाँग ही था । जो ऐतराज किये गये वे ऐसे लगते थे जैसे कंकाल मात्र रह गये किसी भूखे व्यक्तिको संयमके गुणोंका उपदेश दिया जा रहा हो । हर शख्स जान-बूझकर नहीं, बल्कि अनजाने ही ऐसा किये जा रहा था । मेरे मनमें आया कि उनके द्वारा ईश्वर मुझसे यह कह रहा है - " अरे मूर्ख, तू समझता नहीं कि तेरी कोई नहीं सुनता । तेरे दिन पूरे हो गये । " श्री गंगाधररावने मुझसे पूछा, “मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए न ? " मैंने कहा 'हाँ, तुरन्त दे दीजिए।" और उन्होंने फौरन इस्तीफा लिखकर दे दिया । सभापतिजीने उसे पढ़कर सुनाया । प्रायः सर्वसम्मतिसे वह स्वीकृत हो गया । इससे गंगाधररावको लाभ ही हुआ ।