पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/३७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शौकतअली मुझसे लगभग छः गजकी दूरीपर सामने ही बैठे थे। उनकी उपस्थिति वहाँसे मेरे भाग जानेमें बाधक रही। मेरे दिलमें यह सवाल बराबर उठता रहा कि क्या असत्यका परिणाम कभी सत्य भी हो सकता है? क्या मैं बुराईके साथ सहयोग नहीं कर रहा हूँ ? शौकतअली मानों अपनी बड़ी-बड़ी आँखोंसे कह रहे थे : "बिगड़ा कुछ नहीं है, सब ठीक हो जायेगा।" मैं उनके जादूसे अपनेको मुक्त करने के लिए अत्यन्त अधीर हो रहा था, पर कामयाब न हो सका।

सभापतिने पूछा --" अब सभाका काम खतम किया जाये ? " मैंने कहा 'जरूर' । परन्तु मौलाना अबुल कलाम आजाद मेरे चेहरेपर बदलनेवाले भावोंको गौरसे पढ़ रहे थे। उन्होंने तुरन्त आगे आकर कहा-- आपने पैगाम सुनानेका जो वादा किया था, उसके बिना सभा बरखास्त कैसे हो सकती है ? मैंने कहा " मौलाना साहब, आपका कहना ठीक है। आगेके कामके बारेमें मैं कुछ कहना तो चाहता था । परन्तु गोपीनाथके प्रस्ताव के बाद, पिछले एक घंटेसे यहाँ जो-कुछ हो रहा है उसे देखकर मुझे बड़ा सदमा पहुँचा है। अब मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरी स्थिति क्या है और मुझे क्या करना चाहिए ? " उन्होंने कहा -- " अच्छा आप यही कह दीजिए।" मैंने मंजूर किया और हिन्दुस्तानी में एक छोटा-सा भाषण देकर अपना हृदय चीरकर उससे टपकता हुआ लहू दिखाया। मेरे आँसू हर किसी बातपर नहीं निकल पड़ते। आँसू बहानेके मौकोंपर भी मैं आँसुओंको पी जानेकी कोशिश करता हूँ । परन्तु इस मौकेपर तो दिलको मजबूत बनानेका पूरा प्रयत्न करते हुए भी मेरे आँसू बह निकले। सभामें उपस्थित सभी लोग विचलित हो गये । यह साफ दीख पड़ा । मैंने अपनी सभी मनोदशाओंका वर्णन उनके सामने कर दिया और कहा कि यदि शौकत अली आड़े न आये होते तो मैं सभासे कभीका चला गया होता; क्योंकि जिस प्रकार मैं इस बातका अभिमान करता हूँ कि मुसलमानोंकी इज्जत मेरे हाथमें सुरक्षित है, उसी प्रकार मैं यह मानता हूँ कि हिन्दुओंकी आबरू उनके हाथों में महफूज़ है और फिर मैंने कहा कि अपने भावी कार्यक्रम के विषय में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता। मैं उनसे और अपने साथ काम करनेवाले नजदीकी साथियोंसे सलाह-मशविरा करूँगा । इतने दुःखी मनसे मैंने कभी भाषण नहीं किया था। उसे खत्म करके मैं तुरन्त ही मौ० अबुल कलाम आजादको खोजने लगा। वे चुपकेसे खिसककर बहुत दूर सामने एक किनारेपर जाकर खड़े हो गये थे। मैंने पास जाकर कहा, मैं अब रुखसत चाहता हूँ। उन्होंने कहा, " नहीं, जरा और ठहर जाइए। हमें भी कुछ कहना है। " यह कहकर उन्होंने श्रोताओंसे कुछ कहनेकी दरख्वास्त की । सब लोग बोलते हुए सिसक रहे थे। एक बूढ़े सिख सज्जन बोलने खड़े हुए और बोलते-बोलते उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। यह देखकर मेरा दिल हिल गया । शौकतअली भी बोले और दूसरे भी सब लोगोंने क्षमा याचना की और अपने अविचल सहयोग और समर्थनका यकीन दिलाया । मुहम्मदअली बोलते-बोलते दो बार रो पड़े। मैंने उन्हें दिलासा देने की कोशिश की ।

मुझे किसी बातकी माफी नहीं देनी थी, क्योंकि किसीने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं था। उलटा व्यक्तिगत तौरपर सब मुझपर कृपालु ही बने थे । मुझे दुःख इसलिए