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अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी

कठिनाइयोंसे पार पाना मुमकिन न था । कोकोनाडा के कार्यक्रमपर किसी प्रकारका बन्धन लगाना गोया कांग्रेस विधानको तोड़ना माना जाता। मैंने उसका जो अर्थ किया था, और अब भी करता हूँ, उसके मुताबिक तो उससे नियम भंग नहीं होता था । पर कहा गया कि मुझे कोई अपनी अलग व्याख्या करनेका हक न था और स्वराज्यवादियों- को यह कहने का हक था कि जो लोग धारासभाओं में गये हैं वे पदाधिकारी बनने से वंचित नहीं रखे जा सकते। उन्होंने कहा कि सच पूछिए तो स्वराज्यवादी तो कार्य-समिति में मौजूद ही हैं । इस दलीलमें मैंने बहुत-कुछ बल पाया और चूंकि यह तो मैं देख ही रहा था कि वह असली प्रस्ताव जो स्वराज्यवादियोंके पदाधिकारी बनने में बाधक था, एक नगण्य बहुमत से ही पास हो सकता है, इसलिए मैंने प्रस्तावके वर्तमान रूपमें पास हो जाने की बात मान ली। इससे मुझे खुशी नहीं हुई, पर पूरे प्रस्तावसे हाथ धो लेनेकी जगह यही एक रास्ता खुला हुआ था । यह इसलिए जरूरी था कि देश के सामने यह खयाल रहे कि संगठनोंको एक विचारके लोगोंसे गठित होना चाहिए और राजनैतिक कामों में स्वच्छताका आग्रह रखा जाना चाहिए। जो नियम और मानदण्ड औरोंके लिए बनाये जायें उनके अनुसार चलनेकी आशा प्रतिनिधियोंसे जरूर रखी जाये । तरह-तरह से यह दिखाया जाना चाहिए कि अब कांग्रेस कोई भिक्षा माँगनेवाली संस्थाके रूपमें नहीं रह गई है; बल्कि वह एक आत्मशुद्धिकी संस्था है जिसका निर्माण अपनी आन्तरिक शक्तिको बढ़ाकर अपना ध्येय सिद्ध करनेके हेतु किया गया है । इसलिए राष्ट्रीय जीवनके लिए जिन बातोंकी आवश्यकता है उनके अनुकूल लोकमत जरूर तैयार किया जाना चाहिए और इसका सबसे अच्छा तरीका यही है कि प्रस्ताव पेश किये जायें और उनके समर्थकों की संख्या बढ़ाई जाये। ऐसी हालत में यद्यपि मैंने भिन्न-भिन्न मतके लोगों के पदाधिकारी होनेकी सम्भावनाको कुछ समय के लिए मान लिया है तथापि मैं दोनों दलोंके लोगोंसे जोर देकर कहूँगा कि वे एक-दूसरेके रास्ते में बाधक न बनें ।

फिर भी चौथे प्रस्तावने तो मेरी हारमें जो कसर रह गई थी सो पूरी कर दी । यह सच है कि गोपीनाथवाला प्रस्ताव पास हुआ; किन्तु मत संख्याका अन्तर बहुत ही कम था । एक छोटे बहुमतमें होने की अपेक्षा साफ-साफ अल्पमतमें होना मेरे लिए ज्यादा खुशीका बायस हो सकता था । मैं इस बातको नहीं भूल सकता कि बहुतेरे लोगोंने तो श्री दासके संशोधनके पक्ष में मत इसलिए दिया था कि गिरफ्तारियोंकी अफवाह फैल रही थी । बहुत से लोगोंने स्वभावतः इस बात में अपना गौरव माना कि वे अपने ऐसे सरदार और साथीका समर्थन करें, जिसकी देश-सेवा विख्यात है और जिसने महान् आत्मत्याग किया है। इस प्रकार अक्सर नैतिक विचारोंके आगे भावनाको प्रमुखता दी जाती है और मुझे इसमें सन्देह नहीं कि अगर बंगाल-सरकार देशबन्धु और उनके समर्थकों को गिरफ्तार करेगी तो यह एक बड़ी गलती होगी। वह जमाना लद गया जब लोगोंको उनके विचारोंके लिए सजाएँ दी जा सकती थीं । यदि श्री दासके संशोधनके खिलाफ मेरे मनमें नैतिक कारण न होते तो मुझे उनका समर्थन करनेमें जरा भी हिचकिचाहट न होती । पर मैं उसका समर्थन न कर सका, कोई भी कांग्रेसी ऐसा नहीं कर सकता था । श्री दासको मेरे और उनके अपने प्रस्तावमें कोई अन्तर नहीं