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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनुकरण के लिए एक मिसाल बन जायेगा । हमारे लिए ऐसे कार्यकर्त्तागण तैयार करना जरूरी है जो ओहदे न चाहते हों और फिर भी उतनी ही कारगर सेवा करें जितनी कि एक अच्छेसे-अच्छा पदाधिकारी कर सकता है। ऐसे स्त्री-पुरुष समाजके गौरव होते हैं । वे अवसर विशेषपर काम आनेवाली उसकी सेनाके सिपाही हैं ।

इस मजेदार स्थितिसे एक और खयाल दिलमें आता है। क्या जरूरत है कि हम सब लोग जायदादें रखें ? हम जायदादें कुछ अरसे तक रखने के बाद छोड़ क्यों न दें ? धर्माधर्मका जिन्हें खयाल नहीं, ऐसे व्यापारी बेईमानी से भरे मतलबोंके लिए हमपर मुकदमे दायर करते हैं तो फिर हम ही एक बड़ा और नैतिक उद्देश्य हासिल करने के लिए अपनी जायदाद क्यों न छोड़ दें ? एक विशेष अवस्था पार कर चुकने के बाद हिन्दुओंके लिए ऐसा करना एक आम बात थी । प्रत्येक हिन्दूसे यह अपेक्षा रखी जाती है कि एक अरसेतक गृहस्थाश्रममें रहने के बाद वह अपरिग्रही जीवन व्यतीत करे। इस उदात्त परम्पराको हम पुनरुज्जीवित क्यों न करें ? परिणामतः इसका मतलब यही तो होता है कि हम जीवन-निर्वाहके लिए उनकी दयापर निर्भर रहते हैं, जिन्हें हमने अपनी जायदाद सौंप दी है। यह विचार मुझे बड़ा आकर्षक मालूम होता है । इस तरह विश्वास करके किसीको अपनी सम्पत्ति सौंपनेके लाखों उदाहरणोंमें एक भी ऐसा दृष्टान्त मुश्किलसे मिलेगा जिसमें विश्वासका दुरुपयोग हुआ हो। बेशक इससे बहुतसे नैतिक सवाल पैदा होते हैं। पिता और पुत्रका ही दृष्टान्त लीजिए। यदि पुत्र भी पिता जैसा ही असहयोगी है तो फिर पिता अपनी जायदादकी मालिकीके हकका बोझ उसके कन्धोंपर डालकर उसे भ्रमित क्यों करता है ? ऐसे सवाल तो हमेशा ही पैदा होंगे; और फिर किसी भी व्यक्तिके नैतिक सामर्थ्यंकी कसौटी भी तो यही है कि नैतिकतासे सम्बद्ध ऐसी टेढ़ी समस्याओंके बीच वह कितनी योग्यतासे सन्तुलन स्थापित करता है । बेईमान लोगोंको इसका दुरुपयोग करनेका मौका दिये बिना यह परम्परा किस तरह व्यवहारम लाई जा सकती है, इसका निर्णय तो एक बड़े अरसे के अनुभवके बाद ही हो सकता है । फिर भी दुरुपयोगके भयसे इसका प्रयोग करनेके प्रयत्नसे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। 'गीता' कारको यह मालूम था कि 'गीता' के सन्देशको सभी प्रकारकी बुराइयाँ, यहाँतक कि हत्याको भी उचित ठहराने के लिए तोड़ा-मरोड़ा जायेगा, किन्तु इसी कारण उन्होंने वह दिव्य सन्देश देने से मुँह तो मोड़ नहीं लिया ।

वाइकोम

वाइकोमका सत्याग्रह अब शायद अन्तिम अवस्थामें पहुँच गया है।[१] अखबारोंमें समाचार आये हैं-- लोगोंने भी इन्हें सही बताया है-- कि त्रावणकोरके अधिकारियोंने सत्याग्रहियोंको लगभग गुण्डोंकी दयापर छोड़ दिया है । सभ्य भाषामें अब इसे परम्परा-वादियोंका संगठित विरोध कहा गया है । सब जानते हैं कि ऐसे परम्परा पोषण में अकसर अच्छे-बुरेका खयाल नहीं रहता। परम्परावादियोंके पक्ष में साधारण तौरपर

  1. १. देखिए “भेंट : एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडिया प्रतिनिधिसे ", १-७-१९२४ ।