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सुधारककी बनिस्बत अधिक प्रतिष्ठा और लोकमत होता है। इसलिए ये लोग दण्ड भयसे मुक्त रहकर ऐसी बातें करते हैं, बेचारा सुधारक जिन्हें करनेकी हिम्मत नहीं कर सकता। लेकिन जो बात समझमें नहीं आती, वह है त्रावणकोरके अधिकारियोंका रवैया । बेगुनाह सत्याग्रहियोंके खिलाफ जो खुलेआम जोर-जबरदस्ती हो रही है, वे उसकी ओरसे जान-बूझकर आँखें बन्द किये हुए हैं ? क्या त्रावणकोर-जैसी उन्नत रियायतने जान-मालके रक्षणका अपना बुनियादी कर्त्तव्य छोड़ दिया है ? कहते हैं, ये गुण्डे बहुत ही जंगली तरीकेके अत्याचार कर रहे हैं। स्वयंसेवकोंकी आँखोंमें नींबू निचोड़कर वे उन्हें अन्धा कर देते हैं ।

केरलके प्रतिनिधियोंने इस आन्दोलनके समर्थन में कांग्रेसकी ओरसे एक प्रस्ताव पास करने के बारेमें मुझसे पूछा। मैंने उनसे कहा कि मुझे यह विचार पसन्द नहीं है । वे नैतिक समर्थन चाहते थे । यदि उन्होंने अध्यक्ष के पास प्रस्ताव भेजकर समर्थन माँगा होता तो समिति उन्हें तत्काल समर्थन दे देती । इसलिए मैंने उनको ऐसा करने से मना करके अपने सिर बहुत बड़ी जवाबदेही ले ली । लेकिन मेरा दृढ़ विश्वास है कि सभी स्थानिक आन्दोलनोंको आत्मनिर्भर होना चाहिए; अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीको कुछ अपवाद-रूप मामलोंमें ही अपना नैतिक समर्थन देना चाहिए। सदस्योंके साथ इस विषयपर बातचीत होनेके बाद सिखोंके सम्बन्धमें प्रस्तावका सवाल उठा । जब सदस्योंने मुझे इस प्रस्ताव के मसविदेको अन्तिम रूप देते हुए देखा तब फिर मुझसे पूछा कि सिख-सम्बन्धी प्रस्तावको ध्यान में रखते हुए भी क्या आप हमारी बातपर सहानुभूतिपूर्वक विचार नहीं करेंगे। मैंने कहा कि सिखोंका मामला तो कांग्रेसने पहले ही अपने हाथमें ले लिया है, इसलिए अब यदि वह अपना हाथ खींच लेती है तो सन्देह पैदा होगा कि उसने सिखोंका साथ छोड़ दिया है । वे शायद मेरी दलीलके कायल तो नहीं हुए; लेकिन उन्होंने मेरी बात बा-खुशी मान ली । फिर भी, त्रावणकोरके अधिकारियोंसे विनयपूर्वक कहा जा सकता है कि कांग्रेस इस बर्बरता के प्रति उदासीन और तटस्थ नहीं रह सकती । जबतक सत्याग्रहका सामना रियासत के सामान्य नियमोंसे किया जाता है, तबतक यह आन्दोलन स्थानीय ही रहेगा; लेकिन निष्ठावान सत्याग्रहियोंके ऊपर गुण्डे छोड़ देनेका परिणाम यही होगा कि सारे हिन्दुस्तानका लोकमत उनके साथ हो जायेगा ।

अब वाइकोम सत्याग्रह के संयोजकोंसे दो शब्द कहना चाहता हूँ । गुण्डोंकी चुनौती अवश्य स्वीकार की जानी चाहिए। परन्तु सत्याग्रहियोंको अपना सन्तुलन नहीं खोना चाहिए। कहा जाता है कि स्वयंसेवकोंकी खादीकी पोशाकें उनसे छीन ली गईं और जला दी गई। यह सब बहुत ही उत्तेजनात्मक है । उत्तेजनाके कैसे भी कारण होने-पर उन्हें ठंडा बना रहना चाहिए और कठिन से कठिन परिस्थिति आ जानेपर भी हिम्मत रखनी चाहिए। सौ दो-सौ लोगोंकी जानें चली जायें तो यह भी अन्त्यजोंकी स्वतन्त्रताके लिए कोई बहुत बड़ी कीमत नहीं है। ध्यान सिर्फ इतना रखना है कि शहीदोंको निष्कलंक रहकर मृत्युका वरण करना है। सत्याग्रहियोंको सीज़रकी पत्नीकी तरह अपनी स्थिति असंदिग्घ रखनी चाहिए ।