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आनेके लिए कहते। मैंने कहा कि मुझे इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं मालूम होता । पहले जो कुछ कहा, वह एक स्थायी बात है और सिद्धान्तपर आधारित है और अब जो कुछ कह रहा हूँ, वह अवसरको ध्यान में रखकर कह रहा हूँ । इसमें कोई शक नहीं कि स्वराज्यवादियोंने सरकारी हलकोंमें बड़ी हलचल पैदा कर दी है और इसमें भी कोई शक नहीं है कि यदि इस समय वे कौंसिलोंसे निकल आते हैं तो उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा -- यह समझा जायेगा कि उनके पैर उखड़ गये हैं और वे कमजोर हो गये हैं। दरअसल, जहाँतक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीका सम्बन्ध है, स्वराज्यवादियोंकी स्थिति कभी इतनी मजबूत नहीं थी, जितनी कि आज है। वे नैतिक जीतका दावा कर सकते हैं। वे तो विधानसभा और विधान परिषदोंमें जाकर सरकारके साथ लड़नेमें विश्वास रखते हैं; फिर कोई भी कारण नहीं है कि वे इस समय इन विधायक संस्थाओंको छोड़ें। इस मौकेपर यदि वे सदस्यता छोड़ते हैं तो उससे देशमें निराशा और भी बढ़ जायेगी और सरकारके हाथ मजबूत होंगे -- यह ऐसी सरकार है जो न्यायके नामपर कुछ भी देना नहीं जानती और जो झुकती है तो सिर्फ दबाव पड़नेपर बेमनसे; और उसमें कोई लज्जत नहीं रह जाती ।

स्वराज्यवादियोंके लिए कौंसिलोंका त्याग करनेका एकमात्र उपयुक्त अवसर वह होगा जब हम कट्टर असहयोगी, जिसे स्वराज्य दिलानेवाला एकमात्र कार्यक्रम मानते हैं, उसको पूरा करने के लिए सक्रिय रूपसे जुट जायेंगे और उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रगतिका परिचय देंगे या जब स्वराज्यवादियोंको स्वयं अपने कड़वे अनुभवोंसे यह विश्वास हो जायेगा कि परिषदें मिर्च-मसाला तो दे सकती हैं, लेकिन रोटी नहीं; और इसलिए हमें अपना सारा समय और ध्यान रचनात्मक कार्यक्रममें ही लगाना चाहिए।

इन तमाम परिस्थितियोंकी कुंजी तो हम पूर्ण असहयोगवादियोंके हाथमें ही है । हमारा दावा है कि सर्वसाधारण हमारे साथ हैं । कमसे कम मैं तो ऐसा ही महसूस करता हूँ। अगर वे हमारे साथ हैं तो यह बात हमें ठोस काम करके सिद्ध कर देनी चाहिए -- कांग्रेस में सिर्फ बहुमत प्राप्त करके नहीं । अपरिवर्तनवादी सभी प्रान्तों में पर्याप्त काम करके नहीं दिखा सकते । शायद इसमें उनका दोष नहीं । हम कार्यक्रमको तो पसन्द करते हैं, लेकिन उसके मुताबिक काम करनेकी शक्ति हमने विकसित नहीं की है। यदि यह निदान सही है तो हमें काम करना चाहिए; क्योंकि शब्दोंसे नहीं, बल्कि कामसे ही हमें अपने कार्यक्रमके मुताबिक चलनेकी शक्ति प्राप्त होगी। जब हम ठोस काम करके दिखा देंगे, केवल तभी स्वराज्यवादी अपने-आप कौंसिलोंसे निकल आयेंगे ।

मेरे खयालमें अब मध्यवर्ती दलके लिए कोई स्थान नहीं है। मध्यवर्ती दल डाँवाडोल स्थितिवाला दल होता है । वह अवसरके ज्वारके साथ बहता रहता है, लेकिन समय ऐसा आ गया है जब हम सबको दोमें से एक रास्ता निश्चित कर ही लेना चाहिए। जो लोग कौंसिलोंमें विश्वास रखते हैं, उन्हें वहीं रहना चाहिए या अगर वे बाहर हैं तो उन्हें कौंसिलोंमें प्रवेश करना चाहिए या उनके लिए काम