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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करना चाहिए। अगर वे कौंसिलोंमें विश्वास रखते हुए भी लोकमतके डरसे कौंसिलोंसे निकल आयेंगे तो यह उनके लिए और देशके लिए भी घातक होगा। जो स्वराज्य चाहते हैं, वे अपना वक्त बरबाद नहीं कर सकते ।

मेरी स्थिति

मैं कांग्रेसपर अपना नियन्त्रण कायम रखना चाहूँगा -- लेकिन ख्याली या बनावटी बहुमत के बलपर नहीं -- महज इसलिए नहीं कि मेरे हाथ खींच लेनेपर संगठनके ढीले हो जाने और लोगोंमें निराशाका भाव आ जानेका डर है। यदि मैं अपना कार्यक्रम मंजूर नहीं करा सकता तो फिर इस स्थितिको भी स्वीकार करना पड़ेगा । शैथिल्यके बाद नवजीवनका संचार होता ही है । १९२०-२१ में कांग्रेस एक जीती- जागती संस्था बन गई थी लेकिन अब अन्देशा है कि वह १९२० के पहलेसे भी ज्यादा नाचीज बन जायेगी । १९२०में उसमें संगठित ढंगकी बेईमानी नहीं थी । उस वक्त तक प्रतिनिधियोंकी तादाद मर्यादित न थी। कांग्रेस-जनोंको लगातार काम करनेकी कोई मजबूरी न थी, और न कांग्रेसका कोई कोष था । अब कांग्रेसके प्रतिनिधियोंकी संख्या मर्यादित है। सभी प्रस्ताव उन्हींको लक्ष्य करके पास किये जाते हैं और अब उसके पास इतना पैसा है, जैसा कि १९२० के पहले कभी था ही नहीं ।

इसलिए अगर हम बराबर सतर्क नहीं रहेंगे तो इसका स्वाभाविक परिणाम यही होगा कि बेईमानी फैलती चली जायेगी । स्वराज्यवादी मुझसे कहते हैं कि अपरिवर्तनवादियोंने कांग्रेस के विधानपर अमल करनेमें बेईमानीसे काम लिया है । अपरिवर्तनवादी भी स्वराज्यवादियोंके मत्थे यही दोष मढ़ते हैं। सच क्या है, मैं नहीं जानता। लेकिन मैं यह जरूर जानता हूँ कि अगर हम कांग्रेसके विधानपर ज्यादासे-ज्यादा ईमानदारी के साथ अमल नहीं करते या कर नहीं सकते तो यह स्वराज्यके लिए अपशकुन होगा ।

मैं चाहता हूँ कि कांग्रेसकी लोकप्रियता दिनपर-दिन बढ़ती जाये। इसलिए मैं उसमें व्यापारियों, कारीगरों और किसानोंको शामिल करना चाहूँगा। मैं इसी उद्देश्य को ध्यानमें रखकर बहिष्कारके सभी कार्यक्रमोंको भी यथावत् रखना चाहूँगा और कार्यकारिणी में सिर्फ ऐसे लोगोंको ही रखना पसन्द करूँगा, जिन्होंने खुद उनपर अमल किया हो । जो लोग आज उनपर अमल नहीं कर सकते, पर फिर भी उनमें विश्वास रखते हैं, वे उन लोगोंकी मदद कर सकते हैं जो तदनुसार आचरण करते हों; लेकिन जिनको संस्थाकी व्यवस्था करनेका अनुभव नहीं है या जो कार्यकत्तक रूपमें लोगोंके लिए जाने-पहचाने नहीं हैं । और जो लोग अभीतक अलग रहे हैं, उनके पीछे रहकर उनको सार्वजनिक जीवनमें आगे लानेका खास काम शिक्षित वर्गका ही होना चाहिए।

ऐसी संस्थामें विशेषाधिकार प्राप्त वर्गोंके लोगोंके लिए कार्यकारिणीमें कोई स्थान नहीं है । वे सब वार्षिक विचार गोष्ठीमें तो शामिल हो सकते हैं । पण्डित मोतीलालजी एक छोटी स्थायी विचार-समिति बनानेका सुझाव देते हैं। मुझे उसमें कोई उम्र नहीं । महाधिवेशनके सभी अधिकार रखनेवाली एक ऐसी समितिसे शायद लाभ ही होगा ।