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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस आदेशके फलस्वरूप राज्य धर्म-परिवर्तन करनेवालोंकी संख्याको भी अद्यावधि जानकारी रख पाता है। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि यह आदेश सच्चे दिलसे हिन्दू धर्म छोड़कर इस्लाम कबूल करनेपर रोक लगाता है या उसे किसी और तरहसे ही प्रभावित करता है ।

इस भूल-सुधारको प्रकाशित करते हुए मुझे प्रसन्नता हो रही है । पत्रलेखकका कहना है कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सर्वथा प्रामाणिक है । लेकिन मुझे लगता है कि दरबारसे पूर्वस्वीकृति लेनेकी शर्त समाजकी स्वच्छता और कल्याणकी दृष्टिसे लगाया गया शुभ अंकुश ही नहीं है; इससे कुछ अधिक है । किसी वयस्क व्यक्तिपर, जिसमें पूरी समझदारी हो, दरबारसे पूर्वस्वीकृति लेनेका बन्धन क्यों लगाया जाये ? ऐसे धर्म-परिवर्तनकी प्रामाणिकताका निर्णय कौन करेगा ? हिन्दुओंको तो अपना धर्म छोड़कर कोई और धर्म स्वीकार करनेका हर मामला पतनकी ही निशानी दिखेगा; इसलिए ऐसे धर्म-परिवर्तनके हर मामलेके प्रति उसका दृष्टिकोण पूर्वग्रहसे ग्रसित रहेगा । इसलिए मैं दरबारसे नम्र निवेदन करूँगा कि वह पूर्व सहमतिवाली धारा हटा । धर्म-परिवर्तनके मामलोंका पंजीयन करनेकी व्यवस्था अप्रामाणिक धर्म-परिवर्तनके विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा प्रदान कर सकती है और इस सिलसिलेमें इस बातकी जानकारी भी दिलचस्प होगी कि उस राज्यमें इसपर किस ढंगसे अमल किया गया है। हिन्दू धर्मकी रक्षा करनेका सबसे अच्छा उपाय यही है कि सभी हिन्दू राज्य अपने-आपको आदर्श राज्य बनायें और हिन्दू धर्ममें जो बुराइयाँ आ गई हैं, उन्हें दूर करें। तो रीवाँ राज्यसे मैं इस बातकी अपेक्षा करूँगा कि वह अस्पृश्यता के विरुद्ध एक कानून बनाकर दिखाये । जो व्यवस्था अपनी आन्तरिक बुराइयोंके कारण दम तोड़ रही हो, उसे बाहरी सुरक्षाका कोई भी उपाय जीवित नहीं रख सकता ।

मिथ्याभिमान ?

खादी बोर्डने बहुतसे नौजवानोंको खादीके काममें लगा रखा है, लेकिन मुझे मालूम हुआ है कि उसे सही किस्म के ऐसे लोग नहीं मिल रहे हैं जो अपना सारा समय इस काम में लगायें। वे अपना जीविकोपार्जन किसी और साधनसे करना चाहते हैं । मेरे विचारसे, कामके बदले वेतन न स्वीकार करने की यह प्रवृत्ति शुभ नहीं है । हमें पूरे समय काम करनेवाले कार्यकर्त्ताओंकी एक पूरी फौज ही चाहिए। भारत-जैसे गरीब देशमें बिना वेतनके ऐसे कार्यकर्त्ता मिलना सम्भव नहीं है । ईमानदारीके साथ अच्छा राष्ट्रीय काम करनेके लिए वेतन स्वीकार करनेमें मुझे लज्जा की तो कोई बात ही नहीं दिखाई देती; बल्कि मुझे इसमें श्रेय ही दृष्टिगोचर होता है । स्वराज्य-की स्थापना के बाद भी तो हमें ऐसे बहुतसे कार्यकर्त्ताओं को कामपर लगाना होगा जो वेतन लेकर पूरे समय तक काम करें। तब क्या हमें आज स्वराज्य सेवामें शरीक होने में भारतीय असैनिक सेवा (आई० सी० एस० ) में काम करनेवाले अंग्रेजोंसे कम गौरवका अनुभव होगा ? तब फिर आज जब किसीको भी पेंशन देना तो दूर पूरे स्थायित्व तककी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती, वेतन स्वीकार न करनेका क्या औचित्य रह जाता है ? क्या यह भी एक भारी विडम्बना नहीं है कि एक ओर जहाँ