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टिप्पणियाँ

एक खण्डन

तियोंके धर्माचार्य श्री नारायण गुरुस्वामीके साथ जिस मुलाकात के विवरण[१] की बात छपी थी, उसके बारेमें श्री नारायणन्ने एक पत्र भेजा है । मैं प्रसन्नतापूर्वक वह पत्र छाप रहा हूँ। पत्र इस प्रकार है :

वाइकोम-सत्याग्रहके वर्तमान तरीकोंके बारेमें परम पूज्य श्री नारायण गुरुस्वामीके विचारोंके सम्बन्ध में 'यंग इंडिया' में प्रकाशित आपकी टिप्पणी पढ़- कर बहुत दुःख हुआ। कुछ ही दिन पहले में स्वामीजीसे मिला था और उनसे काफी देर तक बातचीत भी की थी। स्वामीजीने प्रारम्भमें ही स्वयं कहा कि कुछ दिन पहले रेलगाड़ी में श्री केशवन् नामक किन्हीं सज्जनसे उनकी बातचीत हुई थी और उन्होंने उस तथाकथित मुलाकातका एक अनधिकृत विवरण देशी भाषाके किसी अखबारमें छापकर उन्हें जनताके सामने बहुत गलत रूपमें पेश किया है। पहली बात तो यह है कि स्वामीजी किसी पत्र-प्रतिनिधिको मुलाकात देनेके आदी नहीं हैं। लेकिन, वे जिस किसीसे जिस विषयपर भी बात करते हैं, उसपर अपने विचार मुक्त भावसे व्यक्त कर देते हैं। अभी बिलकुल हालमें श्रीयुत चक्रवर्ती राजगोपालाचारीकी भी वाइकोमके मामलेपर स्वामीजीसे काफी खुलकर बातें हुई थीं; और कहते हैं, उस अवसरपर स्वामीजीने बहुत स्पष्ट शब्दों में वाइकोम सत्याग्रहके मौजूदा तरीकोंसे सहमति प्रकट की थी।

स्वामीजी जो-कुछ कहते हैं, वह यह है : यह सच है कि वे मन्दिर में प्रवेश करने और दूसरोंके साथ बैठकर खाने-पीनेके पक्षमें बोले; लेकिन ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि वे सदासे मन्दिर प्रवेश और सह-भोजनके पक्षधर रहे हैं । किन्तु, अहिंसापर उनका बहुत आग्रह है। उनका कहना है कि बाड़ें खड़ी न की गई हों, तो भी निषिद्ध क्षेत्रमें प्रवेश करना हिंसा है, क्योंकि सीमापर सरकारके निषेधात्मक आदेशकी जो तख्ती होती है, वह अपने आपमें पुलिसवालों द्वारा खड़ी की गई बाड़के बराबर है; पुलिसवाले तो जब स्वयंसेवक उस ओर बढ़ते हैं, उस समय उस आदेशको सिर्फ दोहराते-भर हैं। उनका विचार यह है कि जबतक निषेधकी सूचना देनेवाली तख्ती वहाँ लगी हुई है तबतक स्वयं- सेवकोंको सीमा रेखापर ही रुके रहकर ईश्वरसे यह प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उनके विरोधियोंको अपना मन बदलनेका साहस दें जिससे वे उस तख्तीको स्वयं हटा दें। हो सकता है, उन्होंने श्री केशवन्से ऐसा कुछ कहा हो कि यदि स्वयंसेवकोंका तख्तीपर लिखे सरकारके निषेधात्मक आदेशको अवहेलना करके निषिद्ध क्षेत्रमें प्रवेश करना ठीक हो तब तो फिर पुलिसका घेरा लांघकर आगे बढ़ने में भी कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। स्वामीजीका कहना है कि हो सकता है, इसी बातको श्री केशवन्ने गलत ढंगसे समझा

  1. १. देखिए " टिप्पणियाँ ", १९-६-१९२४ ।