हो । उन्होंने मेरा ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट किया कि स्वयंसेवकों का आचार-व्यवहार आदर्श होना चाहिए और उत्तेजनाका बड़ेसे-बड़ा कारण होने पर भी उन्हें रोष नहीं करना चाहिए। स्वामीजीका यह खयाल भी है कि ५०० सवर्ण हिन्दुओंके वाइकोमसे चलकर पैदल ही त्रिवेन्द्रमतक जानेकी जो बात चल रही है, उसका नैतिक प्रभाव बहुत जबरदस्त होगा और उससे सभी सम्बन्धित लोग प्रभावित होंगे । अन्ततः उन्होंने आन्दोलनकी पूर्ण सफलताकी कामना करते हुए कहा कि यदि लोग आन्दोलनको इसी उत्साहसे चलाते रहे तो सफलता दूर नहीं है।
उपर्युक्त टिप्पणी तैयार हो जानेके बाद, मुझे एक अधिकृत पत्र मिला है, जो इस प्रकार है :
रेलगाड़ी में श्री के० एम० केशवनकी मुझसे कुछ बातचीत हुई थी, जिसका विवरण 'देशाभिमानी' में छपा है । लगता है, वह विवरण मेरा आशय ठीक-ठीक समझे बिना तैयार किया गया है। प्रकाशनसे पूर्व वह विवरण मुझे दिखाया नहीं गया और न प्रकाशनके शीघ्र बाद ही वह मुझे देखनेको मिला। सामाजिक सामंजस्यके लिए अस्पृश्यता-निवारण बहुत आवश्यक है । महात्मा गांधीने इस बुराई को दूर करनेके लिए जो सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ किया है, उसपर मुझे कोई आपत्ति नहीं है और न लोगोंके उस आन्दोलन में सहयोग देनेपर ही मुझे कोई एतराज है। अस्पृश्यता कलंकको दूर करनेके लिए कामका जो भी तरीका अपनाया जाये, उसका पूर्ण रूपसे अहिंसात्मक होना जरूरी है।
नारायण गुरु
२७-६-१९२४
आधा दर्जन और छ:
'रंगीला रसूल' नामक अपठनीय पुस्तिका तथा 'शैतान' नामक गाली-गलौजसे भरे पर्चे के सम्बन्धमें मैंने जो बातें कही थीं,[१] उनके सिलसिले में आर्यसमाजियोंकी तरफ से मेरे पास ढेरके ढेर पत्र आये हैं । वे मेरी बातकी सचाईके तो कायल हैं पर कहते हैं कि कुछ मुसलमान पत्राका भी यही हाल है और पहले उन्होंने ही यह गाली-गलौज शुरू की; बादमें आर्यसमाजी लोग भी बदलेमें वहीं सब करने लगे । पत्र-लेखकोंने मेरे पास ऐसे कुछ पर्चे भेजे हैं। उनके कुछ हिस्सोंको पढ़नेकी व्यथा मैंने सहन की। उनके कुछ अंशोंकी भाषा तो निहायत घिनौनी है। उन्हें यहाँ उद्धृत करके मैं इन पृष्ठोंको गन्दा नहीं कर सकता। एक मुसलमान-लिखित स्वामी
- ↑ १. देखिए “टिप्पणियाँ ", १९-६-१९२४, उपशीर्षक “आग भड़कानेवाला साहित्य" ।