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दयानन्दके जीवन-चरित्रकी भी एक प्रति मुझे मिली है। मुझे कहते हुए दुःख होता है कि यह अधिकांशमें उस महान् सुधारकका विकृत चित्र है। उनके किये हर काम-पर लेखकने जहर उगला है । एक पत्र-लेखक इस बातकी बड़ी बुरी तरह शिकायत करते हैं कि मेरी बातोंने मुसलमान लेखकों और वक्ताओंका हौसला इतना बढ़ा दिया है कि वे अब आर्यसमाज और आर्यसमाजियोंको और भी ज्यादा गालियाँ देने लगे हैं। एकने हाल ही हुई लाहौरकी एक सभाका हाल लिखकर भेजा है, जिसमें आर्य समाजपर ऐसी-ऐसी गालियोंकी बौछार की गई कि जिनको लिखा नहीं जा सकता । कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे लेखों और भाषणोंके साथ मेरी कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। मैंने आर्यसमाजके बारेमें जो राय प्रकाशित की है, उसके बावजूद मैं आर्य-समाजके संस्थापकका एक नम्र प्रशंसक होनेका दावा करता हूँ । उन्होंने हिन्दू समाज-को भ्रष्ट करनेवाली कितनी ही कुप्रथाओंकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। उन्होंने संस्कृत विद्याके पठन-पाठनका शौक बढ़ाया। उन्होंने अन्धविश्वासको ललकारा । उन्होंने अपने शुद्ध आचरणसे अपने समाजके आचरणको ऊँचा उठाया। उन्होंने निर्भयता सिखाई और कितने ही निराश युवकोंमें नई आशाका संचार किया। मैं उनकी राष्ट्र सेवाके अनेक कार्योंसे भी बेखबर नहीं हूँ । आर्यसमाजने कितने ही सच्चे और आत्मत्यागी कायकर्त्ता दिये हैं। उसने हिन्दुओंमें स्त्री-शिक्षाका जितना प्रचार किया है, उतना ब्रह्मसमाजको छोड़कर शायद ही किसी और हिन्दू संस्थाने किया हो । कुछ अज्ञानी लोगोंने यहाँतक कह डाला है कि मैंने श्रद्धानन्दजीके विषयमें जो बातें कहीं, वह इसलिए कि वे मेरी बातोंकी आलोचना किया करते हैं । किन्तु इस आरोपका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंने गुरुकुलमें सबको रास्ता दिखानेवाला जो काम किया, उसके महत्त्वको मैं एक बार फिर स्वीकार किये बिना रह जाऊँ । ऐसी हालतमें, जहाँतक मैं एक ओर समाज, 'सत्यार्थप्रकाश', ऋषि दयानन्द तथा स्वामी श्रद्धानन्दजीके विषयमें कहा गया अपना एक भी शब्द वापस लेनेमें असमर्थ हूँ, वहीं दूसरी ओर मैं फिर दुहराता हूँ कि मैंने वह आलोचना बिलकुल मित्र भावसे की है और इस अभिलाषासे की है कि जिन त्रुटियोंकी ओर मैंने समाजका ध्यान दिलाया है, उन त्रुटियोंसे मुक्त होकर वह अधिक सेवाक्षम बन सके। मैं चाहता हूँ कि वह समयके साथ कदम मिलाकर चले, खण्डन-मण्डन वृत्तिको छोड़ दे और अपनी रायपर कायम रहते हुए दूसरे सम्प्रदायवालोंके प्रति उसी सहिष्णुताका परिचय दे जिसकी अपेक्षा वह खुद अपने लिए रखता है। मैं चाहता हूँ कि वह अपने कायकर्त्ताओं पर निगाह रखे और ऐसे लेखोंका लिखना बन्द करवा दे जो समाजके नामपर धब्बा लगानेवाले हों; मौजूदा रवैयेको उचित ठहराने के लिए यह कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं है कि इस निन्दा-कार्यकी शुरुआत मुसलमानोंने ही की। मुझे पता नहीं कि उन्होंने ऐसा किया या नहीं। पर मैं इतना जरूर जानता हूँ कि अगर उनकी बातोंके जवाबमें वैसी ही बातें न कहीं जातीं तो थककर वे अपने-आप चुप हो जाते। मैंने तो समाजियोंसे शुद्धि तकको छोड़ देनेको नहीं कहा है । पर मैं उनसे यह प्रार्थना जरूर करूँगा और इसी प्रकार मुसलमानोंसे भी कि वे शुद्धि सम्बन्धी वर्तमान विचारपर फिरसे गौर करें।