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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अपनी पत्नी या बहन भी नहीं कर सकती । जब देखो तभी तत्पर । मेरी जरूरतोंका पहलेसे खयाल रखनेमें ही उसे सुख होता था । मेरी हर चीज झकाझक रहे इस बातका उसे बड़ा ध्यान रहता । मैं बीमार हो जाता तो गंगप्पा ही मेरी परिचर्या सबसे अधिक कुशलताके साथ करता क्योंकि मेरे प्रति वही सबसे अधिक सावधान था। मेरे यूरोपीय वार्ड में पहुँचने के बाद भाई मंजरअली और याज्ञिक दोनों प्रार्थनामें आकर शरीक हो जाते। मंजरअली के छूटनेका समय निकट आनेपर उन्हें इलाहाबाद ले जाया गया। भाई इन्दुलालको भक्तिभावकी अपेक्षा तात्विक चिन्तनकी जरूरत अधिक महसूस होती थी । इसलिए उन्होंने प्रार्थनामें शरीक होना बन्द कर दिया । गंगप्पाको खयाल हुआ कि इन मित्रोंके बिना प्रार्थनामें मुझे अकेलापन महसूस होगा और कदाचित् मुझे उनकी कमी खलेगी। इसलिए जिस दिन मुझे उसने पहले-पहल प्रार्थनामें अकेला बैठे हुए देखा, उसी दिन वह चुपचाप आया और मेरे सामने बैठ गया। कहने की जरूरत नहीं कि उसके इस कार्यके पीछे कोमल शिष्टताका जो भाव था वह मुझे अच्छा लगा। उसका यह कार्य बिलकुल स्वेच्छाप्रेरित, विनयपूर्ण और उसके लिए बिलकुल स्वाभाविक था । रूढ़ अर्थमें मैं इसे धार्मिक नहीं कहूँगा । यद्यपि मेरी अपनी कल्पनाके अनुसार तो वह वास्तवमें धार्मिक था। अपनी इन प्रार्थनाओं में मैं किसीको भी निमन्त्रण देनेसे हमेशा हिचकिचाता हूँ, क्योंकि मैं यह नहीं चाहता कि मेरे खातिर कोई प्रार्थनामें बैठे । अकेले प्रार्थना करनेमें मुझे कभी अकेला- पन नहीं लगा। बल्कि ऐसे समय में सबसे अधिक ईश्वर-सान्निध्य अनुभव करता हूँ। ऐसे समय कोई आये तो मैं चाहता हूँ कि वह मेरे साथके खातिर नहीं परन्तु सिर्फ इसलिए आये कि वह इस ईश्वर-सान्निध्यके अनुभवमें भाग ले सके। इसलिए वार्डरोंको प्रार्थनामें शरीक होने का निमन्त्रण देनेमें मुझे खास तौरपर हिचकिचाहट होती थी। मुझे लगता था कि कहीं ऐसा न हो कि वे मेरे बुलानेके कारण केवल बाहरी शिष्टाचार के विचारसे प्रार्थना में शामिल हो जायें। मैं तो उन्हें ईश्वर-प्रार्थनामें शरीक होने की स्वाभाविक उमंग आनेपर ही प्रार्थनामें सम्मिलित होते देखना चाहूँगा । गंगप्पाने जो मेरा साथ दिया उसमें मैं मानता हूँ कि कुछ तो मेरी एकाकी स्थितिके प्रति दयाभाव और कुछ आधे घंटे के पवित्र वातावरणमें भाग लेनेकी उसकी अपनी इच्छा --दोनों बातोंका मिश्रण था । प्रार्थनामें मैं जो कुछ गाता था उस सबमें ' राम-नाम' को छोड़कर वह एक शब्द भी नहीं समझता था । गंगप्पाके शरीक होनेके बाद अण्णप्पा नामक एक और कन्नड़ वार्डर भी प्रार्थनामें आने लगा और बादमें भाई अब्दुल गनी भी शरीक होनेको प्रेरित हुए । मेरा खयाल है कि भाई अब्दुल गनी, अनजाने ही क्यों न हो, गंगप्पाके सरल भावसे आ जाने के उदाहरणसे प्रभावित हुए थे ।

इस प्रकार पाठक देखेंगे कि कैदी वार्डरों सम्बन्धी मेरा जेलका सारा ही अनुभव सुखद संस्मरणोंसे भरा हुआ है। मुझे जैसे साथी या परिचारक मिले उनसे अधिक निष्ठावान साथी या अधिक वफादार परिचारक मिलनेकी मैं अपेक्षा नहीं कर सकता । पैसा लेकर काम करनेवाले व्यक्तिकी सेवा इसके मुकाबिलेमें हेय है और मित्रोंकी सेवा बहुत हुआ तो उसके बराबर बैठ सकती थी । दुर्दैववश जेल हो जानेके