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२०१. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको
आषाढ़ सुदी १५ [ १६ जुलाई, १९२४ ][१]
तुम मेरे स्वास्थ्यकी चिन्ता न करना । मैंने अपनी खुराक फिर बढ़ा दी है। मेरे मनको आज कौन पहचान सकता है ? में स्वयं नहीं जानता कि वह मुझे किस घाट उतारेगा ? मनमें मंथन तो चल ही रहा है । में आग्रह कोई नहीं रखता । यथासम्भव पवित्र बनने और रहनेका प्रयत्न करता हूँ । बस में अपना कर्त्तव्य इतना ही मानता हूँ। फिर प्रभु मेरे मनमें चाहे जो भरे। 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' में मेरे मनके प्रतिबिम्ब बहुत-कुछ आ जाते हैं ।
[ गुजराती से ]
बापुनी प्रसादी
बापुनी प्रसादी
२०२. मथुरादास त्रिकमजीको लिखे पत्रका अंश
आषाढ़ सुदी १५ [१६ जुलाई, १९२४][२]
अभी बाका वहाँ आना लगभग असम्भव है . . . .।[३] वहाँ आकर वह करेगी भी क्या ? इसलिए मैं उसे आग्रह करके भेजना नहीं चाहता । आनन्दसे[४] कहना कि वह मुझे क्षमा करे ।
[ गुजराती से ]
बापुनी प्रसादी
बापुनी प्रसादी