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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दिल्लीकी आबादीका मुख्य भाग दंगोंसे अछूता रहा -- यही नहीं, ऐसा भी हुआ कि हिन्दुओंने मुसलमानोंको पनाह दी और मुसलमानोंने हिन्दुओंको। इसमें कोई शक नहीं कि यह बात सराहनीय है। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि दिल्लीकी आबादीका मुख्य भाग हुल्लड़बाजोंपर काबू पाने में असमर्थ रहा । स्थिति आज यह है कि हम लोग उपद्रवकारी तत्त्वोंपर अपना नियन्त्रण स्थापित नहीं कर पाये हैं ।

नागपुरका भी यही हाल है। अबतक वहाँसे बहुत थोड़ी खबरें आ पाई हैं । परन्तु यह स्पष्ट है कि नागपुरके हिन्दू और मुसलमान दोनों एक होकर सरकारसे लड़ाई करनेकी अपेक्षा (यद्यपि वह अहिंसाके तरीकेसे ही होगी) आपसमें अन्धाधुन्ध लड़ना ज्यादा फायदेमन्द समझते हैं ।

इस तरह अगर दिल्ली और नागपुरको ही किसी रूपमें आम लोगोंकी मनोवृत्तिका सूचक मान लिया जाये तो हमें बहुत समयतक हिन्दू- मुस्लिम एकताकी आशा छोड़ देनी होगी और इसलिए आजादीके लिए कोशिश करनेके बजाय गुलाम बने रहना मंजूर करना होगा ।

मगर में मायूस नहीं हूँ । मौलाना शौकत अलीकी तरह मेरा भी विश्वास है कि ये झगड़े चन्दरोजा हैं और थोड़े ही दिनोंमें दोनों जातियाँ अवश्य ही एक शान्तिमय कार्यक्रमपर अमल करने लगेंगी ।

यदि हम सचमुच किसी ऐसे कार्यक्रमपर अमल करनेमें लग जाना चाहते हों तो मैं दिल्ली और नागपुर दोनों स्थानोंके कांग्रेस और खिलाफतके लोगोंसे कहना चाहता हूँ कि कोई भी पक्ष किसी भी हालत में अदालतोंका दरवाजा न खटखटाये और ये तमाम झगड़े पंच-फैसलेसे निबटाये जायें। वकील लोग, फिर वे चाहे वकालत करते हों या न करते हों, इसमें बहुत-कुछ मदद कर सकते हैं । बस, वे अदालतमें इन मामलोंकी पैरवी करनेसे इनकार कर दें और दोनों पक्षोंको समझायें कि इससे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हो सकता; शायद नुकसान ही ज्यादा हो । वे उन्हें यकीन दिला सकते हैं कि यदि वे सचमुच सच्ची शान्ति चाहते हैं तो वह उन्हें अदालतोंके जरिये हरगिज नहीं मिल सकती ।

बड़ा-बाजारके कांग्रेसी

जब मैंने इन दंगोंका और आगे चलकर कलकत्तेके बड़ा-बाजारके कांग्रेसियोंके झगड़े और मारपीटका हाल पढ़ा तब मुझे इसपर सहसा यकीन नहीं आया । परन्तु मुझे प्रत्यक्षदर्शी कांग्रेसियोंकी तीन चिट्ठियाँ मिली हैं। उनसे पता चलता है कि समितिकी बैठक में कांग्रेसियोंमें खुलकर मारपीट हुई और वह कांग्रेसके उद्देश्यकी सिद्धिके लिए नहीं बल्कि समितिपर अपना-अपना कब्जा जमानेके लिए हुई। तीनों चिट्ठियोंके लिखनेवाले वे हैं जो अपनेको पक्का अपरिवर्तनवादी कहते हैं । इन पत्रोंके आधारपर यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि कुसूर किस दलका है। मुझे इस बातमें जरा भी शक नहीं कि स्वराज्यवादी अपने बयानोंमें सारा दोष अपरिवर्तनवादियोंके मत्थे मढ़ेंगे। मैं जो बात समझ नहीं पा रहा हूँ वह यह है कि जो संस्था अहिंसात्मक