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कायम कर सकता है, जिसका यह काम हो कि वह अपने सदस्योंसे जितना बने सूत कतवाये और उसे खादी बोर्डके मन्त्रीको भिजवा दे । पाठक यह जानकर खुश होंगे कि गुजरात विद्यापीठके रजिस्ट्रारने इसका श्रीगणेश भी कर दिया है। उन्होंने अपने दफ्तर के कर्मचारियोंसे यह वचन ले लिया है कि वे हर महीने पाँच हजार गज सूत कातेंगे; उसमें से दो हजार गज सूत विद्यापीठको दिया जायेगा और शेष अलग रख दिया जायेगा ।

एक खतरा

गुजरात अपनी जरूरतकी ज्यादातर खादी आन्ध्र, पंजाब और बिहारसे मँगाता रहा है । यद्यपि प्रारम्भिक अवस्थामें जब गुजरात अपनी आवश्यकता पूरी करनेके लिए खादी बनाता ही नहीं था तथा जब उक्त प्रान्तोंको प्रोत्साहनकी आवश्यकता थी, यह शायद जरूरी रहा हो तथापि पद्धतिके रूपमें यह दोषपूर्ण है । खद्दरका मूल सिद्धान्त ही यह है कि प्रत्येक गाँव अपने अन्न और वस्त्रके मामलेमें आत्मनिर्भर बने । अतः प्रत्येक प्रान्तको स्वावलम्बी बन जाना चाहिए। यदि उसे दूसरे प्रान्तसे खादी मँगानी पड़े तो वह आत्मनिर्भर नहीं बन सकता। एक बात यह भी है कि ऐसे प्रान्त में दुर्भिक्षके विरुद्ध संघर्ष करनेकी तनिक भी शक्ति नहीं होती । निर्यात करनेवाले प्रान्तको भी हानि पहुँचे बिना नहीं रहेगी । उत्पादन और बिक्री दोनोंमें ही खराबी आना अवश्यम्भावी हो जायेगा और हाथके कते सूतकी जगह मिलके सूत-का उपयोग करनेका जबरदस्त लोभ उत्पन्न हो जायेगा । मेरे सामने मसूलीपट्टमसे आया एक पत्र है। इसमें लेखक कहते हैं कि व्यापारियोंमें हाथकता सूत इकट्ठा करके उसे निर्यात के लिए बुनवा लेनेका चलन बढ़ता जा रहा है। लेखक आगे कहते हैं कि लगभग सभी कातनेवाले स्वयं हाथके कते सूतका कपड़ा पह्ननेके बजाय मिलके कते सूतका कपड़ा पहनते हैं । अतः खद्दरके ऐसे व्यावसायिक उपयोगके विरुद्ध सतर्क रहना कार्यकर्त्ताओंके लिए अत्यन्त आवश्यक है। उन कातनेवालोंको हाथसे कते सूतका कपड़ा पहनने के लिए प्रेरित करनेका तरीका यह है कि उनका कपड़ा मुफ्त बुना जाये। यह सम्भव है कि कुछ समय तक हाथकते सूतके कपड़ेसे मिलके सूतका कपड़ा सस्ता मिले। गरीब कातनेवाले जो केवल अपनी आजीविकाके लिए कातते हैं, देशभक्ति अथवा राष्ट्रीय आर्थिक हितकी बात सुननेवाले नहीं हैं । उनकी समझमें तो वही बात आयेगी जिससे उनको दो पैसे ज्यादा मिलें । इसलिए यदि उनके काते सूत से कपड़ा मुफ्त बुन दिया जाये तो वे खुशी-खुशी खद्दर पहनने लगेंगे। यह काम बिलकुल ठीक तरहसे और कम खर्च में करने के लिए यह जरूरी है कि बहुसंख्यक युवक कातना ही नहीं, बुनना भी सीखें जिससे वे अपनी गरीब बहनोंके लिए खादी बुन सकें । ये सब बातें तबतक नहीं हो सकतीं जबतक कांग्रेस संगठन मुख्यतः खादी प्रचारक संगठन नहीं बन जाता ।

उपरोक्त तर्कका अर्थ यह नहीं कि खादीका निर्यात बिलकुल ही न किया जाये । आन्ध्रकी विशेष कुशलताके कारण उसकी खादीकी माँग सदा बनी ही रहेगी । किन्तु विनिमयका यह काम व्यापारियोंपर छोड़ दिया जाना चाहिए । कांग्रेस तो उन्हीं

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