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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चीजोंपर ध्यान रख सकती है, जिनको विकसित करने के लिए शुरूमें बड़ी सार-सँभालकी जरूरत हो ।

मुँहपर पट्टी भी आवश्यक

एक अंग्रेज मित्र लिखते हैं :

मैंने अभी एक हफ्ते पहले ही एक मित्रको लिखा था 'गांधीने जब चरखे-की सिफारिश की तब वे उसके साथ-साथ मुंहपर पट्टी बाँधनेकी सिफारिश करना भूल गये' । शायद आपको याद होगा कि मैंने अपने एक भाषण में अवकाश अथवा फालतू समयके दुरुपयोगको भारतका अभिशाप बताया था और शौकके तौरपर बागवानी, बढ़ईगिरी, फोटोग्राफी, पुस्तकवाचन, इतिहास, दर्शन इत्यादि विषयोंके अध्ययनकी सिफारिश की थी। इस देशके लोगोंका सारा फालतू समय मूर्खतापूर्ण और बेमतलबकी गपशप में बीतता है। उन्होंने ठीक ढंग से पढ़ना, अवलोकन करना, ज्ञान प्राप्त करना और उसे आत्मसात् करना नहीं सीखा है । अब उपाय यही है कि स्कूलों और कालेजोंमें छात्रोंसे सभी विषयोंपर निरन्तर निबन्ध लिखाये जायें। इसलिए उन्हें पुस्तकोंका अध्ययन करने, लेखोंके तथ्योंका पूरा ज्ञान प्राप्त करने तथा विचारोंको बनाने और उनको सुसंगत रूपमें रखनेकी आवश्यकता होगी ।

मुझे मुँहपर पट्टी बाँधने के बारेमें दिये गये अपने मित्रके सुझावका समर्थन करनेमें कोई संकोच नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि हममें बहुत ज्यादा बोलने और लिखनेकी बीमारी है । यदि हमारे बोले या लिखे हुएमें सरकार अथवा अपने विरोधीको गालियाँ नहीं दी गई हों तो वह अधिकांशतः निरर्थक दिखाई पड़ता है। मैंने तो सुझाव दिया है कि जहाँतक बोलनेका सवाल है, वह काम मौलाना शौकतअली और मेरे लिए छोड़ दिया जाये। रही लिखनेकी बात सो तो मैं कर ही रहा हूँ। हमें इन मित्रकी आलोचनाकी कीमत सिर्फ इसलिए कम नहीं आँकनी चाहिए कि वे अंग्रेज हैं । वे संयोगवश 'अपराधी' भी हैं। वे उस तन्त्र या व्यवस्थाको चलाने में हाथ बँटाते हैं, जिसे हम नष्ट करना चाहते हैं । परन्तु चूंकि हमारे मनमें इन अंग्रेज 'अपराधियों' के प्रति जो इस शासनतन्त्रकी बागडोर थामे हुए हैं, कोई दुर्भावना नहीं है, इसलिए जिस शासनतन्त्रको वे चला रहे हैं उसका मेरे द्वारा विरोध किये जानेके बावजूद (यद्यपि उनमें से कुछको यह विरोध पागलपन लगता है) वे मेरे साथ अपनी दोस्ती बनाये हुए हैं । अतः पाठकोंसे मेरा निवेदन है कि वे उनकी आलोचनाको उचित महत्त्व दें । निबन्ध-लेखन एक सीमातक ही उपयोगी होता है। वह लेखकको अनिवार्यतः सारयुक्त बातें कहनेवाला नहीं बनाता; लेखक इस कलाका विशिष्ट अभ्यास करे तो बात अलग है । यों तो प्रत्येक व्यक्ति, यदि चाहे तो अपने विचारोंके विस्तारको कम करता हुआ अपने लेखमें इतनी काट-छाँट कर सकता है कि वह एक चौथाई पृष्ठमें आ जाये ।