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२०७. राष्ट्रसे अपील

श्री श्रीशचन्द्र चटर्जी और अठारह अन्य हस्ताक्षरकर्त्ताओंने उक्त शीर्षकसे एक अपील जारी की है। उसकी नकल मैं नीचे दे रहा हूँ ?[१]

मैं जानता हूँ कि यह अपील देश के सामने कुछ समय से पेश है । इसमें कोई नई बात नहीं है । फिर भी इसमें व्यक्त विचार केवल इन उन्नीस लोगोंके ही नहीं, बहुतेरे शिक्षित भारतवासियोंके भी हैं। इसलिए यदि यहाँ उनकी छानबीन करें तो परिश्रम व्यर्थ नहीं जायेगा ।

कांग्रेसने तो स्वराज्यकी कोई परिभाषा नहीं दी है; पर हस्ताक्षरकर्ता पूर्ण स्वाधीनता चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने स्वराज्यकी परिभाषा 'भारतके संयुक्त राज्योंका संघबद्ध गणतन्त्र' की है। कांग्रेसके ध्येय-पत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जो भारतको स्वाधीन होनेकी महत्त्वाकांक्षा रखनेसे रोके । सच पूछिए तो वह स्वराज्य, स्वराज्य ही नहीं जिसमें आवश्यक होनेपर भारत अपने आपको स्वाधीन घोषित न कर सके । पर अपीलकर्त्ताओंका अभिप्राय स्वाधीनतासे यह है कि हर हालतमें और हर तरह जोखिम उठाकर इंग्लैंडसे अपना सम्बन्ध तोड़ लिया जाये । मेरा मत है कि भारत-वर्षकी उन्नति और आजादी के लिए ऐसा सम्बन्ध-विच्छेद अनिवार्य नहीं है । वैसा करनेका दायित्व अंग्रेज लोगोंके सिरपर होना चाहिए। हमारे लिए यही अधिक गौरव-पूर्ण बात होगी कि हम स्वतन्त्र राज्योंके संघमें अंग्रेजोंके साथ बराबरीके हिस्सेदार बने रहने की सहमति घोषित करें। हो सकता है कि अंग्रेजों के लिए ऐसी स्थितिको कबूल करना असम्भव हो । पर हमें उस वस्तुको असम्भव मान लेनेका कोई हक नहीं है जो कि अपने-आपमें असम्भव नहीं है । विश्व राज्योंका ध्येय स्वाधीन होकर सबसे अलग होकर रहना नहीं है । वह तो स्वेच्छापूर्वक परस्परावलम्बन है । इंग्लैंड इस हदतक स्वतन्त्र कदापि नहीं है कि वह यूरोपके चाहे जिस राष्ट्रको हड़प ले । उसकी स्वतन्त्रता कुछ तो उसके पड़ोसियोंकी शुभेच्छापर और कुछ उसके अपने शस्त्रास्त्रोंपर निर्भर है और जिस हदतक वह अपने शस्त्रास्त्रोंपर आधार रखता है, वह संसारके लिए एक संकट है, जैसा कि सचमुच पिछले विश्वयुद्ध के जमाने में सिद्ध हो गया था । अब हम जानने लगे हैं कि उसका हेतु भलाई करना नहीं बल्कि लूट-खसोट करना था । उसके राजनीतिज्ञ, फ्रांस और दूसरे राज्योंके बराबर ही गुप्त-सन्धियों, कूटनीतिकी कपट चालों और बर्बरताओंके गुनहगार हैं। इस मामलेमें वह जर्मनीसे शायद कुछ ही कम हो । यह बात हर शख्सको साफ तौरपर जान लेनी चाहिए कि अपीलकर्त्ता लोग ऐसी सशस्त्र स्वाधीनता नहीं चाहते और यदि वे चाहते ही हों तो फिर यह उनका अपना ही मत है । वे औरोंके मतोंके प्रतिनिधि नहीं हैं ।

  1. १. अपील यहीं नहीं दी जा रही है। उसमें कही गई प्रायः सभी बातोंका उल्लेख गांधीजीके पत्र में आ जाता है।