पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/४३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०७
राष्ट्रसे अपील

परन्तु अनुभवने मुझे यह सिखाया है कि साधनोंको मर्यादित कर देने से यह प्रयोजन शायद सिद्ध नहीं हुआ है । क्योंकि मैं देखता हूँ कि जो लोग स्वराज्यकी प्राप्ति के लिए सत्य और अहिंसाकी आवश्यकतामें विश्वास नहीं रखते वे भी कांग्रेसमें शामिल हो गये हैं और खुद उसमें विश्वास न रखते हुए भी वे कांग्रेसके ध्येय-पत्रपर दस्तखत कर देना पूर्णतया उचित समझते हैं। कदाचित् वे 'शान्तिपूर्ण और न्यायोचित' शब्दोंका अर्थ क्रमश: 'अहिंसात्मक और सत्यपूर्ण' न करते हों । इसलिए शायद मैं खुद ही इस बातका प्रस्ताव पेश करूँ कि 'शान्तिपूर्ण और न्यायोचित साधनों द्वारा'अंश निकाल दिया जाये । देशकी मौजूदा हालतका यही सच्चा दिग्दर्शन होगा। उस अवस्थामें हमपर यह आरोप नहीं लगाया जा सकेगा कि हम किसी चीजपर पर्दा डालते हैं। हर शख्सको, जो वह सर्वोत्तम समझे, उसी नीतिका पालन करनेकी आजादी रहेगी ।

'अपील'का आखिरी खण्ड दिखाई तो बड़ा अच्छा देता है; पर उससे अपील- कर्त्ताओंकी व्यावहारिकताके विषयमें पूरी नातजुर्बेकारीका पता लगता है। यह बात उनके ध्यानमें आई नहीं दिखाई देती कि यदि अबतक हमारे पास राष्ट्रीय कार्य-कर्ताओंकी ऐसी टोली नहीं है जो अपना सारा समय और शक्ति लगाये तो इसका कारण यह नहीं है कि कांग्रेसने इसके लिए कोशिश नहीं की; बल्कि यह है कि कांग्रेसको बड़ी तादाद में ऐसे कार्यकर्त्तागण प्राप्त करनेमें सफलता नहीं मिली। हाँ, यदि अपीलकर्त्ता चाहें और सम्भव हो तो अवश्य ऐसी टोलीका संगठन करें। सही किस्म के कार्यकर्त्ताओंके लिए उन्हें काफी रुपया मिल जायेगा । यदि अपीलकर्त्ता भारत-की भिन्न-भिन्न संस्थाओं को देखें तो उन्हें मालूम हो जायेगा कि उन्हें धनका अभाव नहीं है । इससे क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि राष्ट्र हमेशा उन संस्थाओंके खर्च-का भार उठाने के लिए तैयार रहता है जिनकी उसे जरूरत होती है? अभी पिछले ही सप्ताह मैंने इस बातकी ओर ध्यान खींचा था कि खादी मण्डलको जैसे चाहिए वैसे कार्यकर्ता नहीं मिल रहे हैं।

अपीलकर्ताओं के कार्यक्रमकी दूसरी बातोंके बारेमें अधिक विवेचन करनेकी आवश्यकता नहीं मालूम होती ।

मेरा खयाल है कि पिछले किसी लेखमें[१] मैंने इस बातको अच्छी तरह दिखा दिया है कि ब्रिटिश मालका बहिष्कार एक बिलकुल अव्यावहारिक प्रस्ताव है ।

कारखानोंकी स्थापना के प्रस्तावपर पश्चिमका रंग गहरा चढ़ा हुआ है और वह भारतीय परिस्थितिकी उपेक्षा करता है ।

जो एक ही कुटीर उद्योग सम्भव है, उसे इस कार्यक्रममें स्थान नहीं दिया गया ।

मजदूरों और किसानोंकी सहायताकी तजवीज बिलकुल सही होते हुए भी कहने में जितनी सहल है उतनी करनेमें नहीं है ।

और आखिरी तजवीज कि निकट भविष्यमें तमाम एशियाई जातियोंका एक संघ बनाया जाये, यह दिखलाता है कि यह कार्यक्रम आज असम्भव है ।

  1. १. देखिए “साम्राज्यके मालका बहिष्कार", १५-५-१९२४ ।